Book Title: Anaupcharika Shiksha Sankalpana evam Swarup Author(s): Shivcharan Manoriya Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ अनौपचारिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप - डॉ. शिवचरण मेनारिया (प्रधानाध्यापक, राजकीय माडल सेकेण्डरी स्कल, उदयपुर, राज.) इमे ये नाङित परश्चरन्ति, न ब्राह्मणसो न सुतेकरासः । त एते वाचमाभिपद्ध पापया-सिरीस्तन्त्र तत्त्वते अप्रजज्ञया ।। (ऋग्वेद १०. ७१. ६) "वेदज्ञ ब्राह्मणों एवं परलोकीय देवों के साथ यज्ञादि कर्म नहीं करने वाले व्यक्ति पापाश्रित लौकिक भाषा को शिक्षा के द्वारा अज्ञानीसदृश हलवाहक बनकर कृषि-रूप ताना-बाना ही बुना करते हैं।" शैक्षणिक तारतम्यता का अभाव होने के कारण वेदों में लौकिक भाषा की शिक्षा को पापाश्रित कहा गया है। वर्तमान शिक्षा-जगत् भी उद्देश्यहीनता के भंवरजाल में फंसा हुआ है। शिक्षगालयों में अध्ययनरत छात्र अपने जीवन के वास्तविक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में सर्वथा दिग्भ्रमित-मा रहता है तथा अनिश्चितताओं की मृगमरीचिका में भटकता हुआ मस्तिष्क की अपरिपक्वता का भारवाहक बनकर ही सांसारिकता का अनुगामी बनता है। जीवन की समस्याओं से अनभिज्ञ, विक्षिप्तावस्था में नैतिकता के लम्बे पथ पर अग्रसर होता है एवं अतृप्तावस्था में जीवन भर भटकता रहता है तथा कभी-कभी उद्विग्नतावश अनैतिकता का अनुगामी बन जाता है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में भी किशोरों की समस्याओं का उचित समाधान नहीं हो पाया है। आधुनिक युग में विज्ञान एवं तकनीकी का तीव्रगामी विकास हो रहा है। डा० फिलिप हेडलर ने भावी विकास की कल्पना करते हुए कहा है कि आने वाली शताब्दी में विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति के परिणामतः विश्व के ५ प्रतिशत लोग कृषि करेंगे, २० प्रतिशत व्यक्ति उत्पादन कार्य में लगे होंगे तथा ७५ प्रतिशत अत्यधिक कुशलताओं के कार्य में व्यस्त होंगे। इधर मानव का संचित ज्ञान भी प्रत्येक दशाब्दी में दुगुना होता जा रहा है तथा यही क्रम रहा तो यह निश्चित है कि शिक्षा का कैसा भी पाठ्यक्रम हो, वह कुछ ही समय में अपूर्ण और निष्प्रयोजन हो जायेगा। भारतवर्ष की जनसंख्या ६० करोड़ की सीमा पार कर चुकी है तथा यह आशंका है कि यदि वर्तमान जन्मदर बनी रही तो सन् २००० ई० तक वह एक सौ करोड़ हो जायगी। जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि ने हमारी गत ३० वर्षों की आर्थिक प्रगति को निष्प्रभावी बना दिया है। विकास क्षेत्रों की विस्तार गति से जनसंख्या विस्तार की गति आगे निकलती जा रही है। विभिन्न प्रयासों से अन्न उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है तो प्रति व्यक्ति अन्न की मात्रा (उपलब्ध मात्रा) भी निराशाजनक सीमा तक घट गयी है। साक्षरता प्रतिशत में सुधार की अपेक्षा निरक्षर जनसंख्या की संख्या अधिक हो गयी है । यही स्थिति मकान आदि आवश्यक जीवनोपयोगी-वस्तुओं तथा सेवाओं की है। विशाल भारत राष्ट्र के जन-जन को शिक्षित करने अथवा साक्षर बनाने एवं आर्थिक , सामाजिक तथा जनकल्याण की योजनाओं से भिज्ञ करने हेतु प्रचलित औपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। दीर्घावधि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7