Book Title: Anandmanikya Rachit Navkhanda Parshvanath Fagukavya Author(s): Pradyumnasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ [44] कर्ता श्रीआनंदमाणिक्यनी आ रचना जोता तेओनी बीजी रचना पण होवी ज जोईए. तेओ श्रीना एक गुरभाई श्री जिनमाणिक्यनी रचना मळे छे. ए 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'मां नोंधायेली छे. आ रचनाने प्रभुभक्तिमां अनेक भक्तजनो कंठशोभा बनावशे तेवी आशा छे. आ संस्कृत फागुकाव्यनी हस्तप्रत श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिर(पाटण)नी छे. ॥ श्री नवखण्ड-पार्श्व-स्तवनम् ॥ विपुलमङ्गल-मण्डल-दायकं, जिनपतिं प्रभु-पार्श्व-सुनायकम् । सकल-संपद-वृद्धि-विधायकं, नमत रूपरमा-सुम-सायकम् ॥ १ रासक कमढ-महासुर-मद-भर-भंजन भविक-जनावलि-मानसरंजन । खंजन नयन-विशाल तु, जयु० ॥ २ (छन्दस्त्रिपदी) xx श्रीअश्वसेन-भूमिपति-नंदन चंदन-शीतल-वाणि तु, जयु० ॥ ३ असम-संसार-पयोनिधि-तारण विषम-गहन-गति-नरक-निवारण । वारण-कर्म-महीने(?) तु, जयु० ॥ ४ निरुपम-सकल-महागुण-धारक सेवक-लोक-समीहित-कारक । तार-कला -कालितांग तु, जयु० ॥ ५ काव्यम् पातालाधिप-शेषनागवदलं जिह्वा-सहस्त्र-द्वयं, वक्त्रे स्यादपि यस्य बुद्धिरतुला जीवस्य तुल्या तथा । सोऽपि श्रीजिन पार्श्वराज तव यान् स्तोतुं भवेन्नो क्षमः, संख्यातीतगुणानहो जड-मतिः स्तोष्ये कथं तान् प्रभो ! ॥ ६ रासा डुढक रसना-विंशति-शतं यदि वदने, वदने वचन-विलासं रे । नागाधिप इव भवति निकामं, कामं कर-सोल्लासे रे ।। ७ देवसूरीश्वर इव यदि हृदये, हृदयेश्वर सुविकाशे रे । विलसति विमल-मतिर्जन-जीवन, पीवन तव गुण दासे रे ॥ ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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