Book Title: Anandmanikya Rachit Navkhanda Parshvanath Fagukavya
Author(s): Pradyumnasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनंदमाणिकय-रचित श्रीनवखंडा-पार्श्वनाथ-फागुकाव्य संपा. आचार्य प्रद्युम्नसूरि विक्रमना सोळमा शतकना उत्तरार्धमा थई गयेला, तपागच्छनी लहुडी पोषाळ शाखाना मुख्य आचार्य श्रीहेमविमलसूरिजी महाराजना शिष्य श्रीआनंदमाणिक्यनी आ रचना छ । संस्कृत फागुकाव्य आमेय ओछा मळे छे, तेमां आ फागुकाव्य तेनी मनोरम प्रासादिकताना कारणे विद्वानोमां जरूर आवकारपात्र बनी रहेशे. आ पहेलां 'अनुसंधान'-३मां त्रण संस्कृत फग्गु पं.श्री शीलचन्द्रविजयजी संपादित प्रकाशित थया छे. ते पहेलानी आ रचना छे. तेथी संस्कृतमां आवा प्रकारनी गेयरचनानी परंपरा घणी जूनी गणाय. आम तो आना आद्य प्रयोजक 'गीतगोविंद'ना कवि जयदेव गणाय छे. आ रचनानी शैली रोचक अने अत्यंत प्रासादिक छे. कुल छव्वीस पद्य छे. वर्णानुप्रास अने शब्दानुप्रास तो तमाम पांचे पांच गेय रासकमां जोवा मळे छे. अरे ! बीजा रासामां तो खरी खूबी करी छे. शृखंलायमक सफळ रीते प्रयोज्यो छे. अने छट्ठा पद्यमां-शार्दूलना एक पद्यमां जे भाव गूंथ्यो छे ते भाव विस्तृत करीने ते पछीना रासामां गेय चार कडीमां ते वर्णवे छे. ए भाव स्तुति-स्तोत्रमा सुपेरे वारंवार गवायो छे. छतां अहीं ते ताजगीभर्यो लागे छे. सोळमा पद्यमां जे भाव भर्यो छे ते अन्यत्र मळे छे. आ भाव- एक गुजराती पद्य पण प्रचलित छ : "जे दृष्टि प्रभुदरिसण करे ते दृष्टिने पण धन्य छे, जे जीभ जिनवरने स्तवे ते जीभने पण धन्य छ । पीये मुदा वाणी सुधा ते कर्णयुगने धन्य छे, तुज नाम मंत्र विशद धरे ते हृदयने पण धन्य छे' ॥ आ पद्यमां पण आम तो कोईक संस्कृत श्लोकनो अनुवाद मात्र छे. कुल पांच रासक छे तेमां चार रासकमां चार चार कडी छे त्यारे पांचमा रासकमां त्रण कडी छे तेने त्रिपदी ज कही छे. पांच काव्य छे ते बधा शार्दूलमां छे. मंगलनो श्लोक द्रुतविलंबित वृत्तमा छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [44] कर्ता श्रीआनंदमाणिक्यनी आ रचना जोता तेओनी बीजी रचना पण होवी ज जोईए. तेओ श्रीना एक गुरभाई श्री जिनमाणिक्यनी रचना मळे छे. ए 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'मां नोंधायेली छे. आ रचनाने प्रभुभक्तिमां अनेक भक्तजनो कंठशोभा बनावशे तेवी आशा छे. आ संस्कृत फागुकाव्यनी हस्तप्रत श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिर(पाटण)नी छे. ॥ श्री नवखण्ड-पार्श्व-स्तवनम् ॥ विपुलमङ्गल-मण्डल-दायकं, जिनपतिं प्रभु-पार्श्व-सुनायकम् । सकल-संपद-वृद्धि-विधायकं, नमत रूपरमा-सुम-सायकम् ॥ १ रासक कमढ-महासुर-मद-भर-भंजन भविक-जनावलि-मानसरंजन । खंजन नयन-विशाल तु, जयु० ॥ २ (छन्दस्त्रिपदी) xx श्रीअश्वसेन-भूमिपति-नंदन चंदन-शीतल-वाणि तु, जयु० ॥ ३ असम-संसार-पयोनिधि-तारण विषम-गहन-गति-नरक-निवारण । वारण-कर्म-महीने(?) तु, जयु० ॥ ४ निरुपम-सकल-महागुण-धारक सेवक-लोक-समीहित-कारक । तार-कला -कालितांग तु, जयु० ॥ ५ काव्यम् पातालाधिप-शेषनागवदलं जिह्वा-सहस्त्र-द्वयं, वक्त्रे स्यादपि यस्य बुद्धिरतुला जीवस्य तुल्या तथा । सोऽपि श्रीजिन पार्श्वराज तव यान् स्तोतुं भवेन्नो क्षमः, संख्यातीतगुणानहो जड-मतिः स्तोष्ये कथं तान् प्रभो ! ॥ ६ रासा डुढक रसना-विंशति-शतं यदि वदने, वदने वचन-विलासं रे । नागाधिप इव भवति निकामं, कामं कर-सोल्लासे रे ।। ७ देवसूरीश्वर इव यदि हृदये, हृदयेश्वर सुविकाशे रे । विलसति विमल-मतिर्जन-जीवन, पीवन तव गुण दासे रे ॥ ८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [45] यदि बहु- सागर - जिवित - मानं, मानद भवति संसारे रे 1 अमर नायक इव घन-धन- सहितं हितकर भव - दव-वारे रे ॥ ९ ॥ तदपि तवामल गुण-गण-राशि, वासित- भुवन - विचालं रे । नोतुमलं न भवामि हि जिनवर, नव-रस- सरस - विशालं रे ॥ १० ॥ काव्यम् श्रीसर्वज्ञ जिनेश तावक-लसत्पादारविंद-द्वयं, प्रातर्यो नमति प्रभो प्रमदतो लक्ष्मी विलासालयम् । प्रीति - प्रेम-वशादवश्यमवशा सेवेत सेवापरा, पद्मा पुण्य-परंपरा-पर- नरं तं सर्व-कालं - कलम् ॥ ११ अढैआ कमला- केलि निवास, शम-रस-1 -विहितोल्लास । वासव-निकर-पते, जय जय विमल-मते रे जिन जय जय विमल-मते ॥ १२ वामादेवी - जननी - जात, प्रभावती - वरयति तात । सुख-कर-विनत-जने, चरण - पवित्र मुने ॥ १३ जिन० २ मोहन वल्ली - कंद, निर्मित- नयनानंद । सुंदर सदय-मते, त्वयि मनो मे रमते ॥ १४ जिन० २ उपशम-रस-भृंगार, जगती - युवति - शृंगार | शं कुरु मे भजते, भव-सागर - विरते ।। १५ जिन० २ काव्यम् वाणी सैव मनोहरा ननु यया त्वं गीयसे नित्यशः, श्लाध्या दृष्टिरियं यया च नितरां त्वं दृश्यसेऽहर्निशम् । हस्तः शस्ततरः स एव फलदो यः पूजये त्वां जिनं, ध्यानं धन्यतमं तदेव सुखदं यस्मिन् प्रभो त्वं भवेः ॥ १६ ॥ ॥ फांग ॥ विषम- महारस - पूरित, दूरित-धर्म-मति । शरणागतमथ मां जिन, अवृजिनं कुरु सुमतिम् ॥ १७ ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [46] मदन-महोरग-सुविषम, विष-मल-भरित-हदं / त्वं जिन-नायक मां प्रति, संप्रति दिश सुपदं // 18 क्रोध-दवानल-कीलित-, मीलित-नयन-युगं / कुरु वचनामृत-पोषण-, तोषणतः सुभगम् // 19 लोभ-प्रलोभक-वंचित-, लुंचित-धर्म-धनं / मामथ जिनवर पालय, लालय सर्व-दिनम् / / 20 काव्यम् त्वां येनाथ नुवंति सादरतया, निंदंति ये पापिनस्तेषां वांछित-संपदं च विपदं, घोरां ददासि स्फुटम् / नीरोगोऽपि गत-स्पृहोऽपि विगत-द्वेषोऽपि संगीयसे / विज्ञैश्चित्रमदोऽथवा हि महतां, माहात्म्यमीदृग्विधम् || 22 त्रिपदी शृंगार-सकला नारी सौभाग्य-सुंदरी रे, जाने वर-सुरी रे / अभिनव-यौवन-हरि-दरी रे // 23 कुच-भर-नमदंगी सुरंग-नीरंगी रे, प्रेम-पुष्प-शृंगी रे, विरचित-मृगमद-भंगी रे // 24 शील-शालि-सदाचारा सततमुदारा रे, सुधर्म-विचारा रे / जिन-गुण-गान-सुतारा रे // 25 आनंद-पूरित-बाला तव सुम-मालाभिः, विविध-विशालाभी / रचयति पूजां वर-कला रे // 26 काव्यम् एवं संस्तुति-गोचरं जिनवरं नीत्वा गुणैर्भासुरं, त्वां श्रीमन्नवखंड-पार्श्व सुतरामेकं तु याचे वरम् / देया मे गुरुराज हेम-विमलं त्वं सर्व-सौख्यास्पदं / ज्ञानं मान्यतमं महोदय-मना आनंद-माणिक्यदम् // 27 इति श्रीनवखंड-पार्श्व-स्तवनम् //