Book Title: Alankarik Drushti se Uttaradhyayan Sutra Ek Chintan Author(s): Prakashchandramuni Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र एक चिन्तन / ९७ अध्ययन २-गाथा ३- 'कालीपव्वंगसंकासे' लम्बी भूख के कारण काकजंघा ( वनस्पति विशेष) के समान 'किसे धमणिसंतए' कुश हो गया है धमनियों का जाल ! उपमालंकार । गाथा १० – नागो संगामसीसे वा' जैसे हस्ती संग्राम में प्रागे होकर शत्रुओं को जीतता है वैसे 'समरेव महामुनी' समभाव वाला महामुनि परोषह को जीते ! उदाहरण अलंकार । गाथा १७ - 'पंकभूया उ इत्थिओ' गाया २४ -- ' सरिसो होइ बालाणं क्रोध करने वाला भिक्षु / उपमालंकर, तथा अनुप्रास ! स्त्रियाँ कीचड़ स्वरूप हैं । रूपक अलंकार । मूर्ख के समान होता है 'अबकोज्या परे भिक्खु गाथा २५ – सोच्चाणं फरसा भासा, दारणा गामकंटगा 'दारुण (असहघ ), ग्रामकटक / कांटे की तरह चुभने वाली कठोर भाषा को सुनकर ! ....! उपमा तथा अनुप्रास । अध्ययन ३ - गाथा ५-- 'सव्वट्ट सु व खत्तिया - जैसे समस्त पदार्थों की प्राप्ति होने पर भी क्षत्रिय / राजा लोगों को बड़े राज्य से भी संतोष नहीं होता है वैसे ही 'पाणिणो कम्मकिविसा, न निविज्जन्ति संसारे !' दुष्टकर्म करने वाले प्राणी संसार से नियुक्त नहीं होते हैं। उदाहरण तथा प्रनुप्रास गाथा १२ - 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई धर्म शुद्ध हृदय में ठहरता है और वह शुद्ध हृदय वाला जीव 'निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्त व्व पावए' घृतसिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण को / विशुद्ध प्रारमदीप्ति को प्राप्त होता है। उपमा और अनुप्रासालंकार है । अध्ययन ४ --गाथा १– 'असंखयं जीविय' -- जीवन असंस्कृत / अर्थात् एक बार टूट पुनः न संधने वाले धागे के समान है। इसमें रूपक तथा अनुप्रास है । गाथा ३- 'ते जहा संधिमुहे गहीए' – जैसे सेंध लगाते हुए संधिभुख में चोर पकड़ा जाता है वैसे ही 'एवं पया पेच्च इहं च लोए' इस लोक में जीव अपने कृत कर्मों के कारण छेदा जाता है। उदाहरण तथा अनुप्रास है। गाथा ६- घोरा मुहत्ता' समय भयंकर है। इसमें रूपक और प्रतियोक्ति । 'भारंड पक्खीव चरेऽप्पमत्तो भारंडपक्षी के समान पंडित पुरुष अप्रमत होकर विचरे । उपमालंकार । - 'सुत े सुयावि पडिबुद्धजीवी' सोये हुए लोगों में जागता हुआ प्रतिबुद्ध जीव । विरोधाभासालंकार गाया में अर्थान्तरन्यास तथा अनुप्रास भी है। गाथा ७ – 'लाभान्तरे जीविय वृहत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी' जब तक शरीर से लाभ (धर्मक्रिया) है तब तक इसकी वृद्धि करे साधक एवं बाद में प्रत्याख्यान द्वारा इसे छोड़ दे । इसमें अपह्न ुति, अनुप्रास तथा यमक ( ' माणो' शब्द दो बार आया है ) है । गाथा ८ -छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी । पुव्वाई वासाईचरेऽयमत्तो तम्हा मुणी खिप्पमुबेई मोक्खं ॥ शिक्षित और कवचधारी अश्व जैसे युद्ध से पार हो जाता है वैसे स्वच्छन्दता का निरोध करने वाला साधक संसार से पार हो जाता है, जीवन में अप्रमत होकर विचरण करने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र मै धर्म ही दीप है www.jainelibrary.orgPage Navigation
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