Book Title: Alankarik Drushti se Uttaradhyayan Sutra Ek Chintan
Author(s): Prakashchandramuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 12
________________ Jain Education International गाथा ३७ – 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममितं च दुप्पट्ठिय-सुप्पट्टिओ ॥' छेकानुप्रास, यमक रूपक तथा विरोधाभास है। , गाया ४२ - पोल्ले व मुद्री जह से असारे, अपन्तिए कूड कहावणे वा । राहामणी वेरुलियगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥' जो पोली (खाली) मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे सिक्के की तरह प्रप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ राट्रामणि काचमणि है इनमें उपमा अलंकार है। गाथा ४४ – बिसं तु पीयं जह कालकूटं' - पिया हुआ कालकूट विष हवाइ सत्वं जह कुग्गहीयं' - उलटा पकड़ा शस्त्र; 'हणाइ वेयाल इवाविपन्नो' — प्रनियंत्रित वेताल जैसे विनाशकारी है, वैसे ही 'एसे व धम्मो विसओववनो' विषय विकारों मे युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है । इस गाथा में उदाहरण तथा 'जह' शब्द की दो बार श्रावृत्ति है, अतः यमक है । गाथा ४७ 'अग्गी विवा सव्वभरखी भविता प्रग्नि की भांति सर्वभक्षी इसमें उपमा अलंकार है । 1 -- गाथा ५० कुररी बिवा भोगरसाणुगिदा निरसोबा परियावमेइ ।' जैसे भोगरसों में श्रासक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी ( गीध ) पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है। इसमें उदाहरणालंकार है । - अध्ययन २१ - गाथा १४ – 'सीहो व सद्देण न संतसेज्जा' -सिंह की भांति भयोत्पादक शब्द को सुनकर भी संत्रस्त न हो । उपमालंकार । चतुर्थखण्ड / १०६ गाथा १७ -- ' संगामसीसे इव नागराया - नागराज / हाथी की तरह व्यथित न हो । उपमालंकार | प्रकाशमान होता है । उपमालंकार । उपमालंकार | गाथा १९ - [मेव वाएण अकम्पमाणी' वायु से अकंपित मेरु की तरह । उपमालंकार । गाया २३ - ' ओभासई सूरिए वन्तलिक्खे' अन्तरिक्ष में सूर्य की भांति धर्मसंघ में गाथा २४ - तरिता समुद्दे व महाभवोघं समुद्र की भांति विशाल संसारप्रवाह को तैर कर मोक्ष में गए। उपमा – अध्ययन २२ - गाथा ६ असोयरों मछली जैसा कोमल उदर । उपमालंकार । गाथा ७ बिज्जुसरेवामणिप्पा -- विद्युत् के प्रभाव के समान शरीर की कांति । गाथा ३० - '''''भमरसन्निभे, कुच्च फणग-पसाहिए' – कूर्च और कंधी से संवारे भौंरे जैसे काले केश । उपमा । गाथा ४१ – 'जइ' शब्द दो बार आया अतः यमक है । रूप की उपमा में कहा है'रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरोसक्खं पुरंदरो।' गाथा ४२ -- ' पक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छति वन्तयं भोत, कुले जाया अगंधणे ॥' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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