Book Title: Akulagam ka Parichay Author(s): R P Goswami Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 4
________________ Jes Jain Education International ११६ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड नाभि, हृदय आदि स्थानों से सम्बन्ध (८१) । जीव, शक्ति इत्यादि; मन और प्राण का समागम होने से पाशमुक्ति और प्रणव के अभ्यास से मनः प्राणसमागम ( - ६० ) । प्रणव और प्राणायाम का एकत्व; प्राणायाम के अभ्यास द्वारा प्राणापानयोग जमाकर जीव और शिव का ऐक्य निर्माण करना यह योग है ( – ६७ ) । ऐसे सिद्ध योगी की जरामरण से मुक्ति ( -१०६) । मन और प्राण के संयोग का महत्व ( - १२२ ) । पटल २ – कर्मस्वरूप कथन ( -१३) । नाभिमध्यस्थित शिवात्मक कन्द निरूपण ( -१९ ) । शुभाशुभ निरूपण ( -२० ) । चार मनोवस्था और उनके स्थानभेद (२३) । मोक्षबन्ध और धर्माधर्म निरूपण ( ३३ ) । जीवित और मरण निरूपण ( ४१ ) । चतुविध योग ( - ५३ ) । है पटल ३- देवी का प्रश्न ( ६ ) । ईश्वर का उत्तर—अनेक पंथ का अर्थ है इडा पिंगलादि मार्ग, इन मार्गों से जाने वालों का गन्तव्य स्थान है ब्रह्मस्थान ( -१० ) । मायाविमोहित लोग भिन्न मार्गों का समर्थन करते हैं। वेदों में प्रतिष्ठित तत्वार्थ केवल एक प्रणव ही है । प्राण और अपान का एक करना ही निराकार को प्रत्यक्ष करना है और यह प्राणायाम से साध्य है ( -१८) । मद्य तू (पार्वती) है और शुक्र या मांस मैं (ईश्वर) हूँ । अविद्या मंदिरा है और विद्या मांस है । विद्या और अविद्या का समरूप तृतीय जो पिण्ड है उसे मैथुन कहते हैं । या विद्या अविद्यारूप प्राण और अपान का एकीकरण हो मैथुन है बिन्दु से नाद का आकर्षण किया जाता है, उसी को सुरापान कहते हैं बिन्दु को कला खाती है वही है मांसभक्षण २८ ) । काल अभक्ष्य है, परमाकला अपेय है और परमतत्त्व अगम्य है । इनका भक्षण, पान और गमन योगी करता (-३० ) । सत्य त्रिपद, त्रिगुण, त्रिवेद, ब्रह्मविष्णु शिवात्मक है । यह सत्य अधम, मध्यम और उत्तम त्रिविध है। प्रणव के उच्चारण से प्राण का अर्ध्वगमन होता है, वही सत्य है। वैखरी वाणी के उच्चारण द्वारा प्राण अधोगामी होता है, उसी को असत्य कहते हैं ( -४० ) । बिन्दु का चलित होना ही संसृति का कारण है । वह एक ही बिन्दु सर्वजीवों में त्रिभावात्मक रहता है। बिन्दु के अधोमार्ग में जाने से प्रवृत्ति होती है और ऊर्ध्वमार्ग में जाने से निवृत्ति होती है। स्थान को छोड़कर सूर्य स्थान में जब बिन्दु जाता है तब शरीर का पतन होता है। वायु को साध्य करने से बिन्दु साध्य होता है । अन्न के सेवन से निर्माण होने वाले बिन्दु को धातु कहते हैं; मगर असल में बिन्दु उसी को कहते हैं जो शरीर में चैतन्य है । वह शिवरूप है। बिन्दु के स्थिर होने से आयुष्य की वृद्धि और मन की निश्चलता होती है । चंचल बिन्दु भी योनिमुद्रा से निबद्ध होकर ऊपर की ओर जाता है तब निश्चल होकर देह का काल से रक्षण करता है ( -६६ ) । पवन के अभ्यास से देह निश्चल हो जाता है। अमूर्त के ध्यान से योगी अदृश्य बन जाता है । उसी को जीवन्मुक्ति कहते हैं ( ६८ ) । मुनि, अरण्यवासी, गृहस्थ और ब्रह्मचारी को क्रमशः आठ, सोलह बत्तीस और यथेष्ट ग्रास लेना चाहिए। ( पटल ४ -- देवी का वह्निमार्ग - धूममार्ग इत्यादि के बारे में प्रश्न ( ६ ) 1 ईश्वर का उत्तर- -इड़ा में प्राण स्थित है वही मार्ग है और पिंगला में अपान स्थित है वही धूममार्ग है वह्निमार्ग का आश्रय ब्रह्म है और धूम का भव । प्राण उत्तरायण है और अपान दक्षिणायन है। देह में प्राण और अपान वृक्ष और छाया की तरह है ( २५) । समान से उत्थित वह्नि में प्राण और अपान की आहुति देना ही प्राणाग्निहोत्र है (३१)। परमेशरूप हंस स्वभाव (उत्तर) और भाव (दक्षिण) ये दो पक्ष हैं। उसके एक पक्ष से सृष्टि और दूसरे से संहार होता है । प्राणापानरूप पक्षद्वय के संयम से यह हंस निश्चल होने पर देहमुक्ति हो जाती है और नर आकाशगामी हो जाता है ( ३९ ) । उस हंस की स्थिरता विषुव में होती है । उभयपक्षरहित संध्याकाल ही विषुव है । नाड़ीत्रय गुणत्रयादि के अन्त में जो है वही विषुव है और प्राण का संयम करना ही पुण्य है। देह में प्रणव का ध्यान करने से ही सिद्धि होती है (५५) । पटल ५. -आत्मा के प्रतिकूल कर्म होते हैं। देह में स्थित गुण ही कर्म है। गुणों के प्रवाह से अधोमार्ग और बन्धन होते हैं और गुणरहित होने से मार्ग और मुक्ति हो जाती है। पटल ६ - ब्रह्मार्पण का अर्थ प्रतिपादन । कर्म मनोमय हैं और कर्मों का त्याग ही ब्रह्मार्पण है। ब्रह्मविद्या ज्ञान है ( - १२) | ब्रह्म को कर्म, स्वभाव, काल, काम इत्यादि नाम से कहते हैं। मगर शरीर में स्थित वायु ही देह में आत्मा है। वह हरि है। उसी की चारों वेदों में स्तुति है। योगाभ्यास से उसकी प्राप्ति होती है (२१) । अपान और प्राण का संयोग ही योग कहलाता है । प्राण का संयम करके अन्तर्नाड़ी में संचार करना ही ब्रह्मार्पण करना है । षट्चक्र का भेदन ही ब्रह्मार्पण है । पटल ७- - देवी का षट्चक्रों के बारे में प्रश्न । ईश्वर का उत्तर -- षट्चक्रों के भेदन का प्रमुख उपाय है। आचार । अपने-अपने कर्मों में स्थित रहना ही आचार है। श्रुतिचोदित विधि से प्रथम शौच करना चाहिए, बाद में पादप्रक्षालन, आचमन, स्नान, धौतवस्त्र परिधान करके सूर्योदय में न्यासपूर्वक गायत्री जप करके ध्यान करना चाहिए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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