Book Title: Akulagam ka Parichay
Author(s): R P Goswami
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 7
________________ अकुलागम का परिचय 116 . अमूर्ते भावना विद्धि प्राणायामेन नान्यथा / तस्मात्सर्वप्रयत्नेन प्राणायाम समभ्यसेत् // 3 // 18 // यही मोक्ष का दाता है प्राणसंयमनं पुण्यं निर्गुणं मोक्षदायकम् // 4 // 52 // बिन्दु को साध्य करने का साधन वायु ही है और बिन्दु सिद्ध होने से अन्य सब सिद्ध हो जाता है वायुना साध्यते बिन्दु चान्यं बिन्दुसाधनम् / सिद्ध बिन्दौ महारम्भे सर्वसिद्धिः प्रजायते // 3 // 56 // योगमत में शरीरस्थित चैतन्य ही बिन्दु है। उसका चलन या स्थिरता वायु के अनुसार है। उस बिन्दु के अधोमार्ग में जाने से गर्भवास, जरा-मरण इत्यादि संसार है और ऊर्ध्वमार्ग में जाने से मोक्ष की प्राप्ति है। इसके बारे में तृतीय पटल में विशेष विवेचन है / वायु की धारणा करने में योनिमुद्रा (वज्रोली?) का विशेष स्थान है। इसका भी निर्देश इस ग्रन्थ में हुआ है चलितोऽपि यदा बिन्दुः संप्राप्नोति हुताशनम् / व्रजत्पूर्व हतः शक्त्या निबद्धो योनिमुद्रया // तदासौ निश्चलोभूत्वा रक्षते देहपञ्जरम् / कालोप्यकालतां याति इति वेदविदोऽब्रवीत् // 3 // 65-66 // वायु के अभ्यास से देह ब्रह्मरूप हो जाता है। अमूर्त के ध्यान से देह अदृश्य हो जाता है और उसी को जीवन्मुक्ति कहते हैं / देखिए ब्रह्मरूपो भवेद्देहोऽत्राभ्यासात्पवनस्य च / अमर्ते ध्यानयोगेन अदृश्यो जायते स्वयम् // 3 // 67 // जीवन्मुक्तिरिति ख्याता नान्यथा मुक्तिरच्यते / मूल सम्प्रदाय स्रोत में पारिभाषिक संज्ञाओं के अर्थ कुछ भी हों, इस ग्रन्थ में उनके योगमार्ग की दृष्टि से अर्थ दिये हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही नारद मुनि ने नारायण से प्रार्थना की है अनेकशास्त्रश्रवणादस्माकं भ्रामितं मनः / एतच्च कारणं किचित्कि योगः प्रोच्यते श्रुतौ // 13 // वीरशैव सम्प्रदाय में प्राणलिंग को धारण करने की पद्धति है। अब इस योगशास्त्र की दृष्टि से षटचक्रों के मार्ग में नाभि, हृदय, कण्ठ, भ्रूमध्य आदि स्थानों में चित्त की धारणा करना ही प्राणलिंग को धारण करना है प्रथमं धारयेन्नाभौ भावपुष्पैः प्रपूजयेत् / __ हृदये च तथा कंठे भ्र वोर्मध्ये वरानने // 6 / 176 // शाक्त सम्प्रदाय में मद्य, मांस और मैथुन का महत्व है। इस ग्रन्थकार की दृष्टि से अविद्या मद्य है, विद्या मांसरूप है और इनका एकत्र वास ही मैथुन है / तृतीय पटल में लिखा है अविद्या मदिरा ज्ञेया भ्रामिका विश्वरंजिका / विद्या मांससमुद्दिष्टा मोचका चोगामिनी // 23 // विद्याविद्यात्मकं पिण्डं तृतीयं समरूपकम् / मैथुनं तत्परं देवि ज्ञातव्यं मोक्षसंभवम् // 24 // इसी ढंग से देखिए श्रौतमार्ग के प्राणाग्निहोत्र का अर्थ समानादुत्थितो वह्निस्तत्र मध्ये असुद्वयम् / स्वाहोच्चारितमंत्रण हुत्वा यज्ञः प्रकीर्तितः // 4 // 30 // प्राणाग्निहोत्रं परमं पवित्रं येनककाले विजितं स सद्यः / देहस्थितं योगजरापहारं मोक्षस्य सारं मुनयो वदन्ति // 4 // 31 // यही गति है स्मार्तधर्म के संध्यावन्दन की। प्राण और अपानरूप अहः और रात्रि के बीच विषुव में ध्यान करना ही संध्या है अहः प्राणश्च विज्ञेयो अपानो रात्रिरेव च / संध्यानं विषवं ध्यानं वन्दनं पुण्यकर्मणाम् // 4 // 42 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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