Book Title: Akulagam ka Parichay Author(s): R P Goswami Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 1
________________ अकुलागम का परिचय [LELE अकुलागम का परिचय - रा. पां. गोस्वामी, एम. ए., बी. लिब. [पुणे विद्यापीठ, पुणे संसार के बहुत से धर्म-संस्थापकों के बीच यह एक सामान्यभाव है कि ये धर्मों के उपदेष्टा आत्मसाक्षात्कार से सम्पन्न थे। हमें बहुश: इन श्रेष्ठ महात्माओं के साक्षात्कार-प्रसंग के बाद की जीवनी के बारे में कुछ ज्ञान होता है। कहीं इनके बचपन की कुछ बातें भी परम्परा में सरक्षित हैं। मगर इनके साधनाकाल के बारे में हमें बहुत ही कम जानकारी होती है। साधनाकाल गुप्तता में व्यतीत करने का संकेत जरूर है। इसके अनन्तर भी अपने साधनाकाल, व्यक्तित्व और अनुभवों के बारे में इन साक्षात्कारी पुरुषों के मुख से बात सहसा निकली नहीं। मगर जो बातें निकली हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि इन महानुभावों ने अपनी जीवनी में योग और योगशास्त्र को अपनाया था। योग के अन्तर्गत जो एक साधारण प्रक्रिया है इसके ये महाभाग जरूर ज्ञाता थे और प्रसंगवश चुने हुए शिष्यों को ही इसकी जानकारी देते थे। अब वर्तमान युग में ज्ञान का परिस्फोट हो रहा है। पुराने जमाने में जो विद्या गप्त रहती थीं अब स्वयं कपाटों को भेदकर विश्व को अपना दर्शन दे रही हैं। केवल योग ही नहीं. मध्ययग तक सभी विद्याएं गोपनीय समझी जाती थी। विद्या अथवा शास्त्र, शस्त्र के समान ही हैं। चंचल वृत्तिवाले शिष्य के हाथ कहीं उसका दुरुपयोग न हो और परिणामत: समाज को लाभ के बजाय हानि न हो, इस दृष्टि से केवल गुरूपदिष्ट विद्या को महत्व दिया जाता था । योगविद्या के बारे में यह सावधानी. रखने की विशेष जरूरत थी। कारण कि योगविद्या एक ऐसा तन्त्र है जिसमें थोड़ी-सी असावधानी से साधक को खतरा होना सम्भव है। और जबकि विद्यासम्पन्न व्यक्ति विशिष्ट शक्ति से सम्पन्न होता है तब अगर वह विवेक-मार्ग पर स्थिर न रह सके तो उस शक्ति का दुरुपयोग होना बहुत ही सम्भव है। उपकरण और देश-काल-जाति विशिष्टता की आवश्यकता कम रहने के कारण योगविद्या सर्वसाधारण मनुष्य को भी सुलभ है। यही सुलभता बढ़ाने के कारण परम्परा-प्राप्त मौखिक विद्या अक्षरों में निबद्ध कर लिखित रूप में लाने का कष्ट जिन महाभागों ने किये उन्होंने खुद को बाद की पीढ़ियों का ऋणी बनाया है। हाल में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों को जिज्ञासुओं के उपयोग के लिए संग्रहीत करने का जो एक प्रवाह शुरू हुआ है यह इस कारण स्तुत्य है कि इससे हमें अश्रुतपूर्व और अप्राप्य ग्रन्थों के बारे में जानकारी हो रही है। योगशास्त्र पर कुछ थोड़े ही ग्रन्थ लिखे हुए हैं और जो लिखे हुए हैं उनमें से भी थोड़े ही उपलब्ध हैं। इनमें पातञ्जल योगसूत्र को टीकाएँ, कुछ योग-उपनिषद् हैं। इसके बाद गोरक्षनाथ, हेमचन्द्र, इन्दुदेव, स्वात्माराम आदि कुछ महानुभावों के इस विषय पर लिखे हुए ग्रन्थ मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त एक प्रकार का वाङमय है जो आगमस्वरूप है या आगमों का अंश बनकर रहा है। प्रारम्भिक जैन आगम और बौद्धसूत्रग्रन्थों में योगविद्या के कुछ अंश जरूर हैं। यही पद्धति आगे शैव, शाक्त और पाञ्चरात्र जैसे वैष्णव आगमों में अनस्यत है। कुछ शैव आगम और कुछ पाञ्चरात्र आगम ज्ञान, योग, चर्या और क्रिया नाम के पादों में विभक्त है। इन आगमों के बीच रचना-पद्धति और कथनीय विषयों के बारे में बहुत कुछ परस्पर लेनदेन हो गयी है। इस तथ्य का पता हमें इनके तुलनात्मक अध्ययन से लग सकता है। पाद्मसंहिता का योगपाद तो इस विषय में उल्लेखनीय है जिसका बहत-सा अंश शब्दश: त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् ही है। - आगम ग्रन्थों की एक विशेषता यह है कि उनके कर्ता अथवा रचयिता का पता नहीं चलता। कहीं ईश्वरपार्वती के संवादरूप में आगम है तो कहीं वैष्णवों के आराध्यदेव और भक्त या आचार्य के संवाद रूप में है। प्रतीत होता है कि कर्ता ने परम्परा-प्राप्त ज्ञान क्वचित शब्दों में फेरफार करके या क्वचित् फेरफार न करके स्वयं ग्रथित किया हो और उसे प्रामाणिकता प्राप्त करवाने के लिए किसी पूजापात्र देवता या व्यक्ति के नाम से जोड़ दिया हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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