Book Title: Akulagam ka Parichay Author(s): R P Goswami Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 3
________________ अकुलागम का परिचय ११५ अनन्यत्वादखण्डत्वादद्वयत्वादनाश्रयात् । निर्धामत्वादनामत्वादकुलं स्यान्निरुत्तरम् ।। इसमें अकुल शब्द या सम्प्रदाय को निरुत्तर संज्ञा के समानार्थ कहा है। इसकी दार्शनिक व्युत्पत्ति की पुष्टि में अनन्य, अखण्ड इत्यादि नकारप्रथम शब्दों का आधार लिया है। कुछ भी हो, आज तो इतना ही कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ का उपलब्ध रूप अकुल-नकुल शब्दों का सन्दर्भ रखने वाले शवमार्ग से जरूर सम्बन्ध रखता था और आगे ग्रन्थ के स्वरूप में कुछ फेरफार होने के बाद भी ग्रन्थ नाम वही रहा हो। अकुल शब्द कोशकारों के मत से शिव का वाचक है। यह अकुलागम शिवजी ने कहा है इसलिए इसे यह नामाभिधान प्राप्त हुआ हो। और भी एक बात सम्भव है। गोरक्षनाथप्रणीत सिद्धसिद्धान्त-पद्धति के नाथनिर्वाण व्याख्या में 'कुलाकुलम्' शब्द पर 'शाक्तक्रमो योगक्रमश्च' ऐसा लिखा है । इससे ज्ञात होता है कि अकुल शब्द कभी योगमार्ग का वाचक बना था । कुल शब्द कुण्डलिनी या सुषुम्ना मार्ग का वाचक है और अकुल शब्द उस मार्ग से परे रहने वाले परम शिव का वाचक है। अकुलागम का श्रेष्ठ मन्तव्य कहने के अवसर पर नौवें पटल में कहा है " असून्नियम्य मार्गेण मध्यमेनाकुलं नयेत् । एतज्ज्ञानं वरं भद्रे अकुलागममध्यतः ॥६॥२२४।। यहाँ अकुल शब्द प्राण का वाचक है । इस ग्रन्थकार की दृष्टि से प्राण ही आत्मा (और मन भी) है और वही ईश्वर-स्वरूप है। पटल ६ में यह बात स्पष्ट की है। इन सब बातों से इस ग्रन्थ के अकूलागम नाम का रहस्य खुल । जाता है। ___अब इस ग्रन्थ के समय के बारे में कुछ चिन्तन करना चाहिए । गोपीनाथ कविराज ने भाण्डारकर मन्दिर की प्रति के लिपिकाल के आधार पर इसका रचनाकाल ईस्वी सन की अठारहवीं सदी निश्चित किया है। मगर लिपिकाल का समय ही रचनाकाल मानना भूल है। इण्डिया ऑफिस में दो पाण्डुलिपियाँ हैं। उसमें एक का काल संवत् १६२८ है। दूसरे का काल नेपाल संवत् ७६८ है जो १७३५ के लगभग होता है। संवत् १६२८ की प्रति इस ग्रन्थ की ज्ञात पाण्डुलिपियों में सबसे प्राचीन मालूम होती है। इसलिए यह अवश्य है कि इस ग्रन्थ की रचना उस वर्ष के पहले हुई है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत कहीं ज्ञात काल की घटना या किसी काल का उल्लेख नहीं है। मगर एक जगह उल्लेख है जिसे भविष्यवाणी रूप में लिखा है। उसका शायद ग्रन्थ रचना से सम्बन्ध हो इसलिए यहाँ उसका उद्धरण दिया जाता है : चत्वारिंशच्छताब्दानि चतुःसहस्र तथैव च । भविष्यति कलौ संख्या तदा काले महेश्वरि ॥१४॥ विध्यस्य दक्षिणे भागे गंगायां दक्षिणे तटे । तत्राहं द्विजरूपेण कथयाम्यकुलागमम् ॥१५॥ 'कलियुग के ४०४० वर्ष बीतने पर विध्य के दक्षिण भाग में गंगा नदी (गोदावरी?) के दक्षिण तट पर द्विज के रूप में मैं अकुलागम प्रस्तुत करूंगा।' कलियुग वर्ष की यह संख्या ईस्वी सन् ६४० के बराबर है। इस साल में मैं अकुलागम प्रस्तुत करूँगा यह ईश्वर ने कहा है। इतना ही नहीं, "द्विज' के रूप में कहूंगा यह भी कहा है। हो सकता है कि किसी हुई घटना को भविष्य के रूप में बतलाया हो। जैसा कि राजवंशों के बारे में पुराणों में उल्लेख मिलते हैं। इसे अगर प्रमाणित माना जाय तो यही इस ग्रन्थ के आद्यरूप का रचना समय मानने में कोई हानि नहीं। शैव सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाले और हठयोग के अभिमानी नाथसिद्ध साम्प्रदायिकों की बहुत कुछ बोलचाल इसी समय की हमें मिलती है । इसलिए ईस्वी सन् की दसवीं शताब्दी के आसपास इस ग्रन्थ का समय हो, यह सर्वथा असम्भव नहीं। इस ग्रन्थ में आये हुए भगवद्गीता के उद्धरण, षट्दर्शनों के उल्लेख तथा अन्य तात्त्विक व धार्मिक सम्प्रदायों के पारिभाषिक शब्दों के उल्लेख से यही इसकी पूर्व-मर्यादा निश्चित समझनी चाहिए। हो सकता है किसी 'द्विज' ने इसे प्रथम प्रस्तुत किया हो। मगर 'द्विज' शब्द से हम क्या समझेंगे? इतना ही समझ सकते हैं कि यह किसी अन्त्यवणियों में से या अन्त्य आश्रमियों में से नहीं हो तथा सतत भ्रमण करने वाले नाथसिद्धों में से भी कोई न हो। इस ग्रन्थ में विषय का अनुक्रम यह है पटल १-प्रस्तावना और पार्वतीजी द्वारा शंकरजी की स्तुति और योगमार्ग का उपदेश करने की प्रार्थना (१-६१)। शास्त्रों में केवल नाम से भेद है वस्तुतः नहीं इत्यादि कहकर योग के आसन-प्राणायामादि छ, अंगों के 1499 SPICARE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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