Book Title: Aksharvigyan Ek Anushilan Author(s): Mohanlalmuni Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 7
________________ अक्षरविज्ञान : एक अनुशीलन बागा उच्चारण ही विशेष शक्तिशाली होता है। ये बीजाक्षर दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध स्थापित करने के समान होते हैं। साधक की विचारशक्ति स्विच के समान तथा मन्त्रशक्ति विद्य त-लहर के समान होती है। इस प्रयोग से जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता भी मान्त्रिक के समक्ष आत्मार्पण कर देता है, जिससे उस देवता की सारी शक्ति मान्त्रिक के पास आ जाती है। सामान्य मन्त्रों के लिए विशेष विधि की आवश्यकता नहीं होती है। साधारण साधक बीजमन्त्र और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक-शक्ति का प्रस्फुटन करता है। मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रों के विशेषतः नव भेद हैं। (१) स्तम्भन, (२) मोहन, (३) उच्चाटन, (४ वश्याकर्षण, (५) जभण, (६) विद्वेषण, (७) मारण, (८) शान्तिक और (९) पौष्टिक । इनमें एक से तीन ध्वनियों तक के मन्त्रों का विश्लेषण अर्थ की दृष्टि से नहीं किया जा सकता है किन्तु इससे अधिक ध्वनियों के मन्त्रों का विश्लेषण हो सकता है। मन्त्रों से इच्छाशक्ति का परिष्कार या प्रसारण होता है जिससे अपूर्वशक्ति आती है। तत्त्व और वर्णसंज्ञक-मन्त्रशास्त्र में बीजाक्षरों के विवेचन के साथ उनके रूपों का भी निरूपण किया गया है। रूपों के अतिरिक्त लिंग, वर्ण, संज्ञक आदि अनेक विवेचन प्राप्त होते हैं। बीजाक्षरों के तत्त्वसंज्ञक ये हैं-अ आ ऋह श य क ख ग घ ङ ये वर्ण वायु तत्त्वसंज्ञक हैं। च छ ज झ ञ इ ई ऋ क्ष र ष ये वर्ण अग्नि तत्त्वसंज्ञक हैं। त ट द ड ऊ उ ण ल व ल ये वर्ण पृथ्वीसंज्ञक हैं, 'ठ थ घढ़ न ए ऐ ल स' ये वर्ण जल तत्त्वसंज्ञक हैं। प फ ब भ म ओ औ अं अः ये वर्ण आकाश तत्त्वसंज्ञक हैं। अ उऊ ऐ ओ औ अं क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ज झ ध य स ष क्ष ये वर्ण पुल्लिग हैं । आ ई च छ ल ब ये वर्ण स्त्रीलिंग संज्ञक हैं। इ ऋ ल ल ए अः ध भय र ह द अ ण ड़ ये वर्ण नपुसक लिंग संज्ञक होते हैं। मन्त्र शास्त्र में स्वर और ऊष्म ध्वनियाँ ब्राह्मण वर्ण संज्ञक हैं । अन्तस्थ और कवर्ग ध्वनियाँ क्षत्रियवर्ण संज्ञक हैं। चवर्ग और पवर्ग ध्वनियाँ वैश्यवर्ण संज्ञक हैं और टवर्ग और तवर्ग ध्वनियाँ शूद्रवर्ण संज्ञक होती हैं। मन्त्र और शब्द प्रयोग मन्त्रों के साथ कुछ विशेष सूचक बीजाक्षरों का प्रयोग है। उस प्रयोग के अभाव में मन्त्र भी अपने में अधूरे होते हैं। वे एक जैसे प्रयोग केवल पूर्तिसूचक न होकर विशेष महत्वपूर्ण होते हैं । कुछ विशेष प्रयोजनों के लिए तो वे प्रयोगनिर्णीत हैं, जैसे-वश्याकर्षण और उच्चाटन में 'हं' का प्रयोग; मारण में फट् का प्रयोग; स्तम्भन में, विद्वेषण और मोहन में नमः का प्रयोग; शान्तिक और पौष्टिक के लिए वषट् का प्रयोग किया जाता है । इन प्रयोगों के अतिरिक्त प्रायः विशिष्ट मन्त्रों के अन्त में 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह प्रयोग भी पापनाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उबुद्ध करने वाला माना गया है। मन्त्र को शक्तिशाली बनाने वाली अन्तिम ध्वनियों में स्वाहा को स्त्रीलिंग, वषट्, फट, स्वधा को पुल्लिग और नम: को नपुसक लिंग माना जाता है। मन्त्रसिद्धि के इन प्रयोगों के अतिरिक्त जन ग्रन्थों में चार पीठों का उल्लेख भी मिलता हैश्मशानपीठ (२) शवपीठ (३) अरण्यपीठ (४) श्यामापीठ । इन चारों पीठों की साधना क्रमशः कठोर से कठोरतम होती है। चारों प्रकार की साधनायें वैयक्तिक स्तर पर ही की जाती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से इन चारों पीठों के माध्यम से की जाने वाली साधनायें क्रमशः पूर्णता की ओर आगे बढ़ाती हैं । PasaANABANARAadamGAAAAAAA ApearerayooooAIAS-IMaawaraaaaAIAAAPSAALANDowan ENIया व अभिपायप्रवर अभिल श्रीआनन्द अन्य धाआनन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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