Book Title: Aksharvigyan Ek Anushilan
Author(s): Mohanlalmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 8
________________ ७६ mmmmmmmminaerammaroor प्राकृत भाषा और साहित्य KOCA. जय मन्त्रविज्ञान में ज्ञान का महत्व-इस मन्त्र शास्त्र के संक्षिप्त विश्लेषण और विवेचन का निष्कर्ष यह है कि मन्त्रों के बीजाक्षरों, सन्निविष्ट ध्वनियों के रूपों, विधान में उपयोगी लिंगों और तत्वों के विधानों एवं मन्त्रों के अन्तिम भाग में प्रयुक्त होने वाले पल्लवों अर्थात् अन्तिम ध्वनि समूहों का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत आवश्यक है। उस ज्ञान के अभाव में व्यक्ति की साधनायें विकसित नहीं हो सकती हैं। भगवान महावीर ने आत्मोत्थान के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों को आवश्यक माना है । मन्त्रसाधना में भी साधक ज्ञान और क्रिया दोनों के बल पर ही इच्छित फल प्राप्त कर सकता है। क्योंकि मन्त्र की शक्ति के साथ साधक की शक्ति भी अपना विशेष प्रभाव रखती है। एक ही मन्त्र का फल विभिन्न साधकों को उनकी योग्यता, परिणाम, स्थिरता आदि के अनुसार भिन्न-भिन्न मिलता है। मन्त्र के प्रत्येक अक्षर में स्वतन्त्र शक्ति निहित है, भिन्न-भिन्न अक्षरों के संयोग से भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं। जो व्यक्ति उन ध्वनियों का मिश्रण करना जानता है, वह उन मिश्रित ध्वनियों के प्रयोग से उसी प्रकार के शक्तिशाली कार्य को सिद्ध कर लेता है । महामन्त्र का माहात्म्य-ध्वनियों के घर्षण से दो प्रकार की विद्युत् उत्पन्न होती है-(१) धनविद्युत् (२) ऋण विद्युत् । धनविद्युत् शक्ति द्वारा बाह्य पदार्थों पर प्रभाव पड़ता है और ऋण विद्युत् अंतरंग को प्रभावित करता है। वर्तमान में विज्ञान ने भी यह माना है कि पदार्थ दोनों शक्तियों का केन्द्रस्थल है। मन्त्र का उच्चारण और मनन इन शक्तियों का विकास करता है। जैसे जल में छिपी हुई विद्यु तशक्ति जल के मंथन से उत्पन्न होती है, वैसे ही मन्त्र के बार-बार उच्चारण करने से मन्त्र के ध्वनिसमूह में छिपी हुई शक्तियाँ विकसित होती हैं। भिन्न-भिन्न मन्त्रों में यह शक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है तथा शक्ति का विकास भी साधक की क्रिया और उसकी ज्ञान-शक्ति पर निर्भर करता है। जैनग्रन्थों में णमोकार मन्त्रकल्प, भक्तामर यन्त्र-मन्त्र, कल्याणमन्दिर यन्त्र-मन्त्र, यन्त्र-मन्त्र संग्रह, पद्मावति मन्त्रकल्प आदि मांत्रिक ग्रंथों के अवलोकन से पता लगता है कि समस्त मन्त्रों के रूप, लिंग, बीज, पल्लव आदि नमस्कार महामन्त्र से ही निकले हैं। नमस्कार महामन्त्र में सभी मातृकी ध्वनियाँ होने से सभी मात्रिकी शक्तियाँ विद्यमान हैं। चौदह पूर्व रूप जैन आगमों का सार रूप यही नमस्कार महामन्त्र है। श्रुतज्ञानावरणीय तथा चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से ही इस महामन्त्र की साधना साकार बन सकती है । सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चरित्र की आराधना द्रव्यश्रुत अर्थात् अक्षर-ज्ञान व द्रव्य क्रिया के माध्यम से सहजतया की जा सकती है। अक्षरज्ञान ही अनुभवज्ञान का आधार है। अक्षरश्रुत के आराधक अनेकानेक व्यक्ति क्रमश: विशिष्ट ज्ञानी बने हैं व बन सकते हैं। उपसंहार-अस्तु इस प्रस्तुत लेख में वर्णमाला के विषय में यत्किंचित् विवेचन किया गया है, इसका प्रमुखतः जैन ग्रन्थ ही आधार हैं। सभी धर्म. ग्रंथकार, इतिहास विशेषज्ञ, तर्कवादी आदि इस में एकमत हों, यह सम्भाव्य नहीं है । विज्ञान की धारणायें भी इस विषय में भिन्न हो सकती हैं। फिर भी सर्व-सामान्य रूप से माने जाने वाले तथ्य इस लेख में प्रस्तुत किये गये हैं । देवनागरी लिपि को वर्णमाला प्रस्तुत लेख का प्रतिपाद्य है । क्योंकि यही लिपि सभी लिपियों का मूल स्रोत है। वर्तमान में सभी देशों में प्रचलित लिपियों का आकार-प्रकार व उच्चारण आदि इस लिपि से बहुत भिन्न नहीं है, ऐसा ATIO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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