Book Title: Akash ki Avadharna Agamo ke Vishesh Sandarbh me
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 3
________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अव्यवस्थित और नित्य है। लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन सर्वप्रथम भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अरस आदि है तथा गुण की अपेक्षा आचारांगसूत्र में देखा जाता है। द्वितीय अध्ययन में लोक की से अवगाहन गुणवाला है ।१२ अवगाहना चार प्रकार की बताई चर्चा करते हुए उसके तीन भाग बताए गए हैं--अधोभाग, ऊर्ध्वभाग गई है।१३ द्रव्यावगाहना, क्षेत्रावगाहना, कालावगाहना तथा और तिर्यग्भाग।१५ पं. दलसुखभाई मालवणिया ने भी लिखा है भावावगाहना। जिस द्रव्य का जो शरीर या आकार है, वही कि आचारांग के द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है तथा उसकी द्रव्यावगाहना है, इसी प्रकार आकाश रूप क्षेत्र को पाँचवें अध्ययन का नाम लोगसार है और उसके बीच तिर्यग क्षेत्रावगाहना, मनुष्यक्षेत्र रूप समय की अवगाहना को लोक में मनुष्य रहता है, यह मान्यता भी स्थिर हो गई थी।... कालावगाहना तथा भाव अर्थात् पर्यायों वाले द्रव्यों की अवगाहना साथ ही लोकों के तीनों भागों में जाने का निर्देश है, लोक के भावावगाहना कहलाती है। अलावा अलोक की कल्पना भी देखी जाती है।६ लोक के आकाश के दो विभाग हैं-लोकाकाश तथा अलोकाकाश।१४ . अतिरिक्त अलोक की कल्पना जैन-दर्शन को छोड़कर अन्य विश्व में जो रिक्त स्थान है. वह लोकाकाश तथा विश्व के के किसी दर्शन में देखने को नहीं मिलती। यह जैन-दर्शन की बाहर रिक्त स्थान अलोकाकाश है। दूसरी भाषा में जहाँ पुण्य अपनी विशिष्टता का द्योतक है। इस सन्दर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ और पाप का फल देखा जाता है वह लोक है। पण्य पाप का का मत है कि अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक फल वहीं देखा जाता है जहाँ धर्म, अधर्म काल, जीव और का अर्थ है चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश । जैन का अथ पदगल रहते हैं। अत: वही लोकाकाश है जहाँ ये सब रहते हैं। -दर्शन के अनुसार लोक-अलोक का विभाग नैसर्गिक है. जहाँ इन द्रव्यों का अभाव होता है. वहाँ अलोकाकाश है। तात्पर्य अनादिकालीन है। वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। है कि जहाँ आकाश ही आकाश है वहाँ अलोकाकाश है। लोक की स्वीकृति प्रायः सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि आकाश अनन्तप्रदेशी, नित्य, अनन्त तथा निष्क्रिय है। चूँकि को सब मानते हैं। किन्तु अजगत या असष्टि को कोई दार्शनिक लोक की सीमा होती है, किन्तु अलोक की कोई सीमा नहीं होती स्वीकार नहीं करता। यह भगवान महावीर की मौलिक देन है।१७ इसलिए आकाश को अनन्त प्रदेशी स्वीकार किया गया है। आचार्य महाप्रज्ञजी और मालवणियाजी के विचारों से यह नहीं आकाश का यह विभाजन वस्तुतः चौदह रज्जु ऊँचा पुरुषाकार समझना चाहिए कि दोनों में अंतर है। बस दृष्टि-भेद है तो कथन लोक के कारण हुआ है। यद्यपि आकाश की दृष्टि से लोकाकाश का। आचार्य का कथन जैन-दर्शन की मौलिकता पर आधारित और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है। वह सर्वत्र एकरूप है, तो मालवणिया जी का कथन आगमों की ऐतिहासिकता पर। अर्थात् सर्वव्यापक है। लोकाकाश और अलोकाकाश के इस लोक से बाहर अलोकाकाश है जिसे व्याख्या-प्रज्ञप्ति में विभाजन को निम्न आकृति से स्पष्ट समझा जा सकता है-- सुषिर गोल संस्थानवाला बतलाया गया है। जैन-दर्शन में अलोकाकाश को गोलाकार शून्य वृत्त से दर्शाया जाता है।९९ आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर पाये जाते हैं। अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है।२० रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, भारतीय सृष्टि विद्या से साभार धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं जो घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित है ।२१ जैन मतानसार जगत् के समस्त पदार्थ आकाश पर ही स्थित हैं। स्थानांगसूत्र में लोकस्थिति का निरूपण करते apne FERENCity amitsNRNपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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