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आकाश की अवधारणा : आगमों के विशेष सन्दर्भ में
डॉ. विजय कुमार पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी....
भारतीय दर्शन की प्रायः सभी शाखाओं में आकाश की फिर देशात्मक। मध्ययुगीन दार्शनिकों में विशेषतः सन्त ऑगस्टाइन अवधारणा देखी जाती है। अंतर केवल मान्यताओं का है। चार्वाक ने देश को वस्तुओं से स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं माना है। उसे पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) के रेनेदेकार्त जो बुद्धिवादी दार्शनिक है, ने देश को व्याप्ति (Extention) रूप में स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन में वसुबन्धु आकाश का कहकर उसे जड़ वस्तुओं का मौलिक गुण माना। उनके अनुसार वर्णन 'तत्राकाशं अनावृत्ति' कहकर करते हैं।' अर्थात् आकाश विस्तार जड़ का भौतिक धर्म है। जो जड़ में निहित होता है जड़ न तो दूसरों को आवृत्त करता है और न ही दूसरों से आवृत्त होता के विस्तार से भिन्न अथवा अलग नहीं माना जा सकता और न है। किसी भी रूप (वस्तु) को अपने में प्रवेश करने से नहीं ही दोनों को एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं। हमें कभी भी रोकता। अत: आकाश धर्म है तथा नित्य अपरिवर्तनशील असंस्कृत किसी ऐसी वस्तु या पदार्थ का बोध नहीं होता जो देश में फैला (जिसका उत्पाद-विनाश नहीं होता) धर्म है। न्याय-वैशेषिक के न हो। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि देकार्त की दृष्टि में अनुसार आकाश एक सरल (अमिश्रित) निरंतर स्थायी तथा विस्तार (Extention) तथा देश (Space) दोनों एक ही हैं। अतः अनन्त द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है जो रंग, रस, गंध और स्पष्ट होता है कि देकार्त के अनुसार विस्तार जड़ पदार्थ का स्पर्श आदि गुणों से रहित है। अपनयन की क्रिया द्वारा स्पष्ट हो मौलिक धर्म है। लाइनिज के अनुसार देश और काल की कोई जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है। वस्तुतः यह अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। उसके अनुसार हम लोग वस्तुओं निष्क्रिय है किन्तु समस्त भौतिक पदार्थ इसके साथ संयुक्त को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों में देखते हैं यथा, यहाँ पाये जाते हैं। सांख्य-दर्शन एकमात्र प्रकृति तत्त्व को मानकर वहाँ दूर नजदीक इत्यादि और इसके आधार पर ही देश की उसी से प्रकृति की सारी वस्तुओं की उत्पत्ति मानता है। इसके कल्पना कर लेते हैं। अतः देश की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। अनुसार शब्द तन्मात्रा से शब्द गुणवाले आकाश की उत्पत्ति उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है-देश (Space) काल, गति, स्थिरता होती है। जैन-दर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा मान्य है। आकार आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति मन से होती है, क्योंकि बुद्धि धर्म, अधर्म, आकाश जीव और पुद्गल पंचास्तिकाय के अंतर्गत ही इनका आधार है, जिनका किसी भी प्रकार बाह्य जगत से आते हैं। इन्हीं पंचास्तिकायों में काल को समावेशित करके छह संबंध होता है। इससे स्पष्ट होता है कि लाइनिज देश की द्रव्यों की सत्ता मानी गई है। आकाश इन्हीं छह द्रव्यों में से एक यथार्थ सत्ता नहीं मानते, क्योंकि वे पूर्ण रूप से इसे मानसिक है। (जैन मतानसार आकाश के स्वरूप की चर्चा आगे की अथवा बौद्धिक मानते हैं। इमानुएल काण्ट के अनुसार देश जाएगी)। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शन में आकाश केवल प्राग अनुभव अंत:दर्शन की उपज है। उनका मानना है के स्वरूप के विषय में मतभिन्नता है।
कि देश कोई ऐसा आनुभाविक प्रत्यय नहीं जिसे बाह्य अनुभूतियों - आकाश के विषय में उपर्यक्त मतभिन्नताएँ न केवल भारतीय से पूर्णतः असंबद्ध कहा जाए। यह दिखाने के लिए जो संवेदनाएँ दर्शन बल्कि पाश्चात्य दर्शन में भी देखने को मिलती है। अरस्त हमें प्राप्त होती हैं, उनका बाह्य वस्तुओं से संबंध है तथा यह के देश (Space) विषयक विचारों के बारे में कछ विद्वानों का जानने के लिए कि वे वस्तुएँ न केवल हमसे बाहर और और एक मानना है कि अरस्त-दर्शन में देश वह है जिसमें वस्तएँ स्थित हैं। दूसरे से भिन्न हैं बल्कि वे भिन्न-भिन्न स्थानों पर भी हैं. देश को अन्य विद्वानों के अनुसार अरस्त ने देश की सत्ता को वस्तओं पर उनके आधार रूप में मानना आवश्यक है। तात्पर्य है कि बाह्य निर्भर माना है। प्लॉटिनस ने देश की उत्पत्ति को वस्तओं की अनुभूतियाँ तभी संभव हैं जब संवेदनाएँ देश रूपी साँचे में ढलकर उत्पत्ति के बाद की घटना माना है। वस्तएँ पहले द्रव्यात्मक हैं. हमारी चेतना में प्रवेश करें। अत: सिद्ध है कि देश संवेदन marithroomirandomorridordroidrordnidminim ५३Hairidiodidnidaniodwordbrdairanirandard
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-तीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - ग्राहिता के पूर्वानुभाविक तत्व है। मिशाल के तौर पर यदि हम (Time) द्वारा व्यवस्थित होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती एक फूल की कल्पना करते हैं तो इसके साथ ही देश का विचार हैं तो प्रश्न होता है कि संवदेन-सामग्रियाँ देश और काल को भी आ जाता है, क्योंकि गुलाब कुछ न कुछ दिक् घेरता है और सदा ही उसी रूप में व्यवस्थित क्यों करती हैं, जैसा कि हम उन्हें इसी प्रकार गुलाब की उपस्थिति किसी न किसी काल में होती देखते हैं, वे क्यों नहीं उन्हें किसी भिन्न अथवा दूसरे रूप में है। अत: काण्ट के अनुसार देश और काल की कल्पना तो व्यवस्थित करती हैं। मिशाल के तौर पर हम हमेशा क्यों यह वस्तुओं के अभाव में संभव है, परंतु किसी भी वस्तु की कल्पना देखते हैं कि मनुष्य की आंखें उसके मुख के ऊपर हैं, उससे भिन्न बिना देश और काल के संभव नहीं है। अत: देश और काल अथवा दूसरे रूप में व्यवस्थित क्यों नहीं ? यद्यपि काण्ट ने संवेदनग्राहिता के पूर्वानुभविक तत्त्व हैं। काण्ट के अनुसार देश इसका समाधान दिया है, जिसका विस्तृत विवेचन और काल पूर्वानुभाविक हैं, यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि नहीं कर सकते। किन्तु आकाश की वास्तविक सत्ता को तो देश और काल अपरिमित (Infinite) हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति स्वीकार करना ही पड़ेगा। अपनी अनुभूतियों में नहीं ला सकता।
लाइनिज के अनुसार भी आकाश की स्वतंत्र सत्ता भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतकों के विचारों को देखने के नहीं होती। वस्तुओं की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों के पश्चात आकाश के संबंध में तीन विचारधाराएँ स्पष्ट होती हैं-- आधार पर हम देश (Space) की कल्पना कर लेते हैं। इस (i) आकाश प्राग्-अनुभव अंत:दर्शन की उपज है।
प्रकार लाइनिज आकाश को जड़ पदार्थों से जोड़ देते हैं। प्रश्न
होता है कि यदि भौतिक पदार्थों का अभाव है तो आकाश के (ii) आकाश जड़ पदार्थों से जुड़ा है या उनका गुणरूप या
अस्तित्व का भी होगा? अत: लाइनिज की यह मान्यता स्वीकारने क्रमरूप है।
योग्य नहीं है। क्योंकि आकाश अनन्त है और भौतिक जगत् (iii) आकाश जड़ और चेतन से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र शांत। आकाश अमूर्त है जबकि भौतिक पदार्थ मूर्त। साथ ही वास्तविकता है।
आकाश को भौतिक पदार्थ का गुण भी मानना उपयुक्त नहीं प्रथम विचारधारा के समर्थकों में काण्ट का नाम प्रमुख
जान पड़ता, जैसा कि डेकार्त ने माना है। स्थान रोकना या स्थान है। इनका मानना है कि आकाश स्वयं में कोई वास्तविक तत्त्व पाना भौतिक पदार्थ का गुण है किन्तु जिसमें स्थान पाया जाता नहीं है, बल्कि हमारे मस्तिष्क की उपज है। चूँकि हम व्यवहार में है, वह तो उससे भिन्न ही होता है। एक ही स्थान में अनेक वास्तविक पदार्थों के विस्तार को देखते हैं और यह अनुभव
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पदाथा का आश्रित है
पदार्थों का आश्रित होना और एक ही पदार्थ का कालांतर में करते हैं कि इसका कोई न कोई आधार होना चाहिए। उस अनेक स्थानों में आश्रित होना आश्रय देने वाले तत्त्व को आश्रित आधार रूप में हम आकाश की कल्पना कर लेते हैं। अर्थात्
तत्त्व से भिन्न कर देता है। दूसरी बात कि आकाश अमूर्त है तथा आकाश आत्मनिष्ठ है, ज्ञाता में निहित है। वास्तविक पदार्थ या भौतिक पदार्थ मूर्त। फिर अमूर्त आकाश मूर्त पदार्थ का गण पदार्थ का गुण नहीं। प्रश्न होता है कि वास्तविक पदार्थों का कैसे बन सकता है? आधार यदि वास्तविक नहीं होता है तो काल्पनिक आश्रय के जैन दर्शन के अनुसार आकाश सर्वव्यापी, एक अमूर्त द्वारा उनका टिकाव कैसे हो सकता है। अतः आकाश को और अनन्त प्रदेश वाला है। 'आकाशस्यावगाहः' आकाश का वास्तविक मानना ही पड़ता है। जहाँ तक आकाश के पूर्वानुभाविक लक्षण है ।१० वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को अंत:दर्शन का प्रश्न है, जो वस्तुओं के प्रत्यक्ष करने के अपरिहार्य स्थान देता है। अत: वह अवगाहन गुणवाला है। स्वरूप की दृष्टि आधार हैं। हमारी सभी संवेदन-सामग्रियाँ देशकाल द्वारा व्यवस्थित से अवर्ण, अगंध, अस्पर्श, अरूपी, अजीव शाश्वत अवस्थित व होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती हैं। काण्ट के इस मत की लोकालोकरूप द्रव्य है ।१९ स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार वह द्रव्य आलोचना करते हुए वर्टेण्डरसेल ने कहा है- यदि यह मान की अपेक्षा से एक द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकालोक लिया जाए कि सभी संवेदन-सामग्रियाँ देश (Space) और काल प्रमाण अर्थात् सर्वव्यापक है। काल की अपेक्षा से वह ध्रुव,
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अव्यवस्थित और नित्य है। लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन सर्वप्रथम भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अरस आदि है तथा गुण की अपेक्षा आचारांगसूत्र में देखा जाता है। द्वितीय अध्ययन में लोक की से अवगाहन गुणवाला है ।१२ अवगाहना चार प्रकार की बताई चर्चा करते हुए उसके तीन भाग बताए गए हैं--अधोभाग, ऊर्ध्वभाग गई है।१३ द्रव्यावगाहना, क्षेत्रावगाहना, कालावगाहना तथा और तिर्यग्भाग।१५ पं. दलसुखभाई मालवणिया ने भी लिखा है भावावगाहना। जिस द्रव्य का जो शरीर या आकार है, वही कि आचारांग के द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है तथा उसकी द्रव्यावगाहना है, इसी प्रकार आकाश रूप क्षेत्र को पाँचवें अध्ययन का नाम लोगसार है और उसके बीच तिर्यग क्षेत्रावगाहना, मनुष्यक्षेत्र रूप समय की अवगाहना को लोक में मनुष्य रहता है, यह मान्यता भी स्थिर हो गई थी।... कालावगाहना तथा भाव अर्थात् पर्यायों वाले द्रव्यों की अवगाहना साथ ही लोकों के तीनों भागों में जाने का निर्देश है, लोक के भावावगाहना कहलाती है।
अलावा अलोक की कल्पना भी देखी जाती है।६ लोक के आकाश के दो विभाग हैं-लोकाकाश तथा अलोकाकाश।१४ .
अतिरिक्त अलोक की कल्पना जैन-दर्शन को छोड़कर अन्य विश्व में जो रिक्त स्थान है. वह लोकाकाश तथा विश्व के के किसी दर्शन में देखने को नहीं मिलती। यह जैन-दर्शन की बाहर रिक्त स्थान अलोकाकाश है। दूसरी भाषा में जहाँ पुण्य
अपनी विशिष्टता का द्योतक है। इस सन्दर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ और पाप का फल देखा जाता है वह लोक है। पण्य पाप का का मत है कि अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक फल वहीं देखा जाता है जहाँ धर्म, अधर्म काल, जीव और
का अर्थ है चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश । जैन
का अथ पदगल रहते हैं। अत: वही लोकाकाश है जहाँ ये सब रहते हैं। -दर्शन के अनुसार लोक-अलोक का विभाग नैसर्गिक है. जहाँ इन द्रव्यों का अभाव होता है. वहाँ अलोकाकाश है। तात्पर्य अनादिकालीन है। वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। है कि जहाँ आकाश ही आकाश है वहाँ अलोकाकाश है।
लोक की स्वीकृति प्रायः सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि आकाश अनन्तप्रदेशी, नित्य, अनन्त तथा निष्क्रिय है। चूँकि
को सब मानते हैं। किन्तु अजगत या असष्टि को कोई दार्शनिक लोक की सीमा होती है, किन्तु अलोक की कोई सीमा नहीं होती
स्वीकार नहीं करता। यह भगवान महावीर की मौलिक देन है।१७ इसलिए आकाश को अनन्त प्रदेशी स्वीकार किया गया है।
आचार्य महाप्रज्ञजी और मालवणियाजी के विचारों से यह नहीं आकाश का यह विभाजन वस्तुतः चौदह रज्जु ऊँचा पुरुषाकार
समझना चाहिए कि दोनों में अंतर है। बस दृष्टि-भेद है तो कथन लोक के कारण हुआ है। यद्यपि आकाश की दृष्टि से लोकाकाश
का। आचार्य का कथन जैन-दर्शन की मौलिकता पर आधारित और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है। वह सर्वत्र एकरूप
है, तो मालवणिया जी का कथन आगमों की ऐतिहासिकता पर। अर्थात् सर्वव्यापक है। लोकाकाश और अलोकाकाश के इस लोक से बाहर अलोकाकाश है जिसे व्याख्या-प्रज्ञप्ति में विभाजन को निम्न आकृति से स्पष्ट समझा जा सकता है-- सुषिर गोल संस्थानवाला बतलाया गया है। जैन-दर्शन में
अलोकाकाश को गोलाकार शून्य वृत्त से दर्शाया जाता है।९९ आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर पाये जाते हैं। अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है।२० रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा,
भारतीय सृष्टि विद्या से साभार धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं जो घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित है ।२१ जैन मतानसार जगत् के समस्त पदार्थ आकाश पर ही स्थित हैं। स्थानांगसूत्र में लोकस्थिति का निरूपण करते
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-यतीन्दसूरि स्मारक गत्य आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महुए कहा गया है वायु (तनुवात) आकाश पर प्रतिष्ठित है। समुद्र द्वारा समर्थित है। परमाणु के दो भाग हैं--इलेक्ट्रोन और प्रोटोन। (घनोदधि) वायु पर प्रतिष्ठित है। पृथ्वी समुद्र पर प्रतिष्ठित है। इन दोनों के बीच में एक अवकाश विद्य त्रस स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित है। अजीव जीव पर प्रतिष्ठित समस्त पदार्थों में से यदि अवकाश को निकाल दिया जाए तो है। जीव कर्म पर प्रतिष्ठित है। अजीव जीव के द्वारा संगृहीत है। उसकी ठोसता आँवले के आकार से वृहत् नहीं होगी।२६ जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है । यहाँ आपत्ति उठाई जा सकती है जैन-दर्शन द्वारा मान्य लोकाकाश और अलोकाकाश के कि आकाश सब पदार्थों का आश्रयदाता है, तो आकाश को भी विषय में एक प्रश्र यह भी देखने को मिलता है कि पहले आश्रय देने वाला कोई होगा। आकाश को आश्रय देने वाला लोकाकाश की सत्ता बनी या अलोकाकाश की। सामान्यतया कोई और है, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आ जाएगा। यदि
ऐसा माना जाता है कि सष्टि से पूर्व शून्य आकाश था, जिसमें भौतिक पदार्थ को ही आश्रयदाता मानते हैं तो भी अनवस्थादोष
पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि की उत्पत्ति हुई। जैसा कि आ सकता है। क्योंकि किसी भी प्रकार का भौतिक पदार्थ बिना
छान्दोग्योपनिषद में वर्णन आया है कि प्रवाहण जैवलि से पछा आश्रय टिक नहीं सकता। अतः अभौतिक द्रव्य आकाश की
गया कि पदार्थों की चरमगति क्या है? उत्तरस्वरूप उन्होंने कहा धारणा करते हैं। अतः आकाश स्व-आधारित है और पदार्थों को
जिससे समस्त पदार्थों का उद्भव होता है, और अंत में आकाश आश्रय देना उसका स्वभाव है। भगवती वृत्ति में कहा गया है।
में ही विलीन हो जाता है ।२७ लेकिन जैन-दर्शन के असार सृष्टि आकाश स्वप्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने
अनादि और अनन्त है। अत: उसके अनुसार लोकाकाश और का उल्लेख नहीं है ।२३ प्रश्न होता है आकाश यदि स्वप्रतिष्ठित है
अलोकाकाश में पूर्व और पश्चात् का क्रम होने का प्रश्न ही उत्पन्न तो फिर सभी द्रव्यों को स्वप्रतिष्ठित क्यों न मान लिया जाए?
नहीं होना चाहिए। भगवई में स्पष्ट कहा गया है कि लोकान्त इसका उत्तर देते हुए डा. मोहनलाल मेहता कहते हैं कि निश्चय
और अलोकान्त पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों दृष्टि से तो सभी द्रव्य आत्मप्रतिष्ठित हैं, किन्तु व्यवहार-दृष्टि से
शाश्वतभाव हैं। रोह! यह अनानुपूर्वी है-लोकान्त और अलोकान्त अन्य द्रव्य आकाशाश्रित हैं। इन द्रव्यों का संबंध अनादि है,
में पूर्व - पश्चात का क्रम नहीं है ।२८ ।। अनादि संबंध होते हुए भी इनमें शरीर हस्तादि की तरह आधाराधेय भाव घट सकता है। आकाश अन्य द्रव्य से अधिक व्यापक है,
वैशेषिक-दर्शन दिक् को एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में अतः सबका आधार है।२४ आकाश सबका आधार है यह
स्वीकार करता है। उनकी यह मान्यता उचित नहीं जान पड़ती व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित महावीर के इस कथन से भी स्पष्ट होता
है। जैन-दर्शन के अनुसार दिशा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। आकाश है। 'आकाशतत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ है' के प्रदेशों में सूर्योदय की अपेक्षा दिशाओं की कल्पना की गई है।
पं. महेन्द्र कुमार जैन का मानना है कि आकाश के प्रेदशों में गणधर की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए महावीर ने कहा है'गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहाँ होते? ये धर्मास्तिकाय
पंक्तियाँ सभी तरफ कपड़े में तंतु के समान श्रेणीबद्ध है। एक और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते? काल कहाँ पर बरतता?
परमाणु जितने आकाश को रोकता है, वह प्रदेश कहलाता है। पुद्गल का रंगमंच कहाँ पर बनता? यह विश्व निराधार ही होता।२५
इस नाप से आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। यदि हम पूर्व, पश्चिम जगत् सर्वव्यापक है। ऐसी कोई भी जगह नहीं जहाँ आकाश की
आदि का व्यवहार होने से दिशा को एक स्वतंत्र द्रव्य मानेंगे तो , सत्ता नहीं हो। सामान्यतया जिसे हम ठोस समझते हैं, उनमें भी
पूर्वदेश, पश्चिमदेश आदि व्यवहारों से देशद्रव्य भी स्वतंत्र मा ना आकाश अर्थात् रिक्त स्थान होता है। मूर्त द्रव्यों में भी आकाश
होगा, फिर प्रांत, जिला आदि अनेक स्वतंत्र द्रव्यों की कल्पना निहित रहता है। मिसाल के तौर पर लकड़ी में जब हम कील
करनी होगी जो उचित नहीं है ।२९ इस संबंध में विशिष्टाद्वैतवादी ठोंकते हैं तो कील लकड़ी के रिक्त स्थान में ही समाहित होती
श्री निवासाचार्य का मत भी उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा है - है। तात्पर्य है कि लकडी में भी आकाश है। आचार्य महाप्रज्ञ के
आकाश के जिस प्रदेश से सूर्य उदित होता है, उस प्रदेश को पूर्व अनुसार प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाश
दिशा कहा जाता है तथा वहाँ के मूर्त पदार्थों को पूर्व माना जाता शून्य नहीं है। अवकाशान्तर का यह सिद्धांत आधुनिक विज्ञान ।
है। जहाँ सर्य अस्तंगत होता है, आकाश का वही प्रदेश पश्चिम
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४.
-चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - दिशा कहलता है। सूर्योदय में सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होने ३. न्यायसूत्र ४:२, २१-२२ पर जो दाहिनी ओर आकाश होता है उसे दक्षिण दिशा और बायीं ।
मानविकी-पारिभाषिक-कोष (दर्शनखण्ड), डा. नगेन्द्र, ओर के आकाश को उत्तर दिशा कहते हैं। अतएव आकाश से
पृ. १६८-१६९। अतिरिक्त दिशा नामक कोई द्रव्य नहीं है ।३० दिशा की उत्पत्ति के विषय में आचारांग नियुक्ति में कहा गया है कि तिर्यक् लोक ५.
५. वही से दिशा और अनुदिशा की उत्पत्ति होती है। आकाश के दो 6.. Our Idea of Space, fugue, motion, rest their origin प्रदेशों से दिशा का प्रारंभ होता है और वह दिशा दो-दो प्रदेशों in the common sense, in the mind itself for they
are ideas of pure understaing which however, की वृद्धि करती हुई असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती है। अनुदिशा
have reference to the exteral world केवल एक देशात्मक होती है। ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारंभ
Duncen Philosophical works of Leibnitz, p.150 चार प्रदेशों से होता है। उसमें अन्त तक चार ही प्रदेश हैं किन्तु वृद्धि नहीं होती। इससे स्पष्ट होता है कि दिशा आकाश से 7. Space in not an empirical concept abstracted from ex
ternal experiences. For in order that certain sensations पृथक् कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है।
may be refered to something outside me (i.e. someइस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में आकाश की
thing in a different position in space from that in which
find myself), and further in order that I may be able to अवधारणा, लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में विभक्त percieve them in outside and besides each other and है। अलोकाकाश, जैन-दर्शन की मौलिक अवधारणा है।
thus as not merely different but indifferent places, the
presentation of space must already give the foundaलोकाकाश लोक तक सीमित है, तो अलोकाकाश असीमित है। tion. डा. मोहनलाल मेहता का कहना है कि जब आकाश कोई
B. Russell History of western Philosophy, P. 741 भावात्मक तत्त्व नहीं है, तब आकाश के आधार पर लोकाकाश
That the idea of space stems a priori and not from exऔर अलोकाकाश की कल्पना न करते हुए केवल लोक और
perience is clear frow the facm that space is 'infinite अलोक रूप विभाजन को ही स्वीकार करना चाहिए।३२ कहा which no one can experience or demonstrate further
more, it is possible to conceive the complete absence जा सकता है कि लोकाकाश और अलोकाकाश दो भिन्न द्रव्य
of things from space, but not the absence of phenomनहीं हैं, बल्कि आकाश द्रव्य के ही दो रूप हैं। जहाँ धर्म, अधर्म, enon from time, but not the absence of time itself, which,
therefore is given a priori". जीव पुद्गल और काल की स्थिति है, वह लोक है और जहां इसका अभाव है वह अलोक है। वस्तुतः अलोक, लोक के
Klinke, Kant for Everyman, P. 84 - 85 चारों ओर व्याप्त है, उसमें समाया हुआ है। पण्णवणा में लोक 9.
There is here......... a difficulty which he seems to have को आकाशरूपी वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा गया है never felt. What induces me to arrange objects of per
ception as I do rather than otherwise ? why for instant, ३३ | भगवतीवृत्ति में कहा गया है अलोक में आकाश परिपूर्ण नहीं
do I always see people eyes above their mouths and है। उसका एक भाग लोक में है।३४ अतः लोकाकाश और not below them ?..... Kant holds that the mind orders
raw material of sensation, but never thinks it necessary अलोकाकाश दो नहीं बल्कि एक ही आकाश के रूप हैं। यह
to say why it orders it, it does and not otherwise. सत्य है कि आकाश इंद्रियगम्य नहीं है। इसलिए इसकी सिद्धि
B. Russell, History of western Philosophy, P.741 लौकिक प्रत्यक्ष द्वारा संभव नहीं है। किन्तु आगम प्रमाण से इसकी सत्ता मान्य है।
१०. तत्त्वार्थसूत्र ५/१८ सन्दर्भ
११. आगासत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरुवी अजीवे
सासए अवट्रिए लोगालोगदव्वे। स्थानांगसूत्र ५/३/१७२ १. बौद्ध-दर्शन-मीमांसा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ. १७५ .
१२. वही २. वैशेषिकसूत्र २: १,२७, २९-३१ ansardarsanskarodaidodioraniramidnidian ५७ Hamritaminoransarsonsidaritaminodridaosaridrda
DIGYANMAMAIKHANIDS.PMS
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________________ --यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - 13. चउविहा ओगाहणा पण्णत्ता, तं जहा-दव्वोगाहणा, भगवतीवृत्ति 1/310 खेत्तोगाहणा, कालोगाहणा, भावोगाहणा। वही 4/1/188 24. जैन धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. 214-215 14. गोयमा। दुविहे आगासे पण्णत्ते, तंजहा-लोयाकासे य 25. भगवती 13/4. उदधत-श्रीदेवेन्द्रमनि शास्त्री. जैन-दर्शन अलोयागासे या वही 2/10/10 / में आकाश तत्त्व: एक अध्ययन, श्रमणोपासक, अप्रैल 15. आयातचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणति उ8 . 78, पृ. 16 ___भागं जाणति, तिरियं भागं जाणति। आचारांगसूत्र 1/2/5/91 26. भगवई, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 135 16. जैन-दर्शन का आदिकाल, पं. दलसुखभाई मालवणिया, 27. तंह प्रवाहणो जैवलिर् उचाव-अस्य लोकस्य का गतिर् पृ. 241-242 इत्य आकाश इति होवाच। सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्या 17. भगवई, पृ. 134 काशाद् एवं समुत्पद्यन्ते, आकाशं प्रत्यस्तम् यान्त्या काशोह्य 18. अलोए णं भंते। किखंठिए पण्णत्ते? गोयमा झसिरगोलसंढिए एवेभ्यो ज्यायान्, आकाशः परायणम्। छान्दोग्योपनिषद् पण्णत्ते / / भगवती 11/99 1/818,1/9/1 19. भारतीय सृष्टिविद्या, डा. प्रकाश, पृ-.१० 28. रोहा! लोयंते य अलोययंते य पुटिव पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासयाभावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा! भगवई, आचार्य 20. व्याख्याप्रज्ञप्ति में आकाश के निम्नलिखित पर्यायवाची महाप्रज्ञ, 1/6/296 बताए गए हैं- आकाश, आकाशास्तिकाय, गगन, नभ, सम, विषम,खह, विहायस, वीचि, विवर, अम्बर, अम्बरस, 29. जैनदर्शन, पं. महेन्द्रकुमार जैन, तृतीय संस्करण, पृ. 133 छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द, आधार, व्योम, 30. सूर्यपरिस्पन्दयुक्ताकाशस्यैव (सूर्यपरिस्पन्दादिभिराकाशस्यैव) भाजन अंतरिक्ष श्याम अवकाशान्तर. अगम. स्फटिक प्राच्यादिव्यवहारोपपत्तौ दिगिति न पृथग्द्रव्यकल्पनम। और अनन्त। व्या. प्र. 2/6 यतीन्द्रमतदीपिका, व्याख्याकार, आचार्य शिवप्रप्रसाद द्विवेदी, पृ. 78-79 / 21. रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनााम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः। सप्ताधोऽधः पृथुतराः। तत्त्वार्थ- 31. आचारांगनियुक्ति, 42/44, उद्धृत, श्री देवेन्द्रमुनिशास्त्री, सूत्र 3/1 जैनदर्शन में आकाश तत्त्व, श्रमणोपासक, अप्रैल 1978, पृ. 19 22. अट्ठविद्या लोगट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा-आगसपतिट्टिते वाते, वातपट्ठिते उदही (उदधिपतिट्ठिता पुढवी, पुढवीपतिट्ठिता 32. जैन धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. 218 तसा थावरा पाणा, अजीवा जीवपतिट्ठिता) जीवा 33. आगासथिग्गले णं भंते! किणा फुडे? कइहिं वा काएहिं कम्मपतिट्टिता, अजीवा जीवसंगहीता, जीवा कम्मसंगहीता। फुडे? पण्णवणा 15/53 स्थानाङ्गसूत्र 8/14, भगवई 1.6.310 34. अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य 23. आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति। भागरूपत्वात्। भगवतीवृत्ति, 2/140 D:\GYANMAMAKHANDS.PMS