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-तीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - ग्राहिता के पूर्वानुभाविक तत्व है। मिशाल के तौर पर यदि हम (Time) द्वारा व्यवस्थित होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती एक फूल की कल्पना करते हैं तो इसके साथ ही देश का विचार हैं तो प्रश्न होता है कि संवदेन-सामग्रियाँ देश और काल को भी आ जाता है, क्योंकि गुलाब कुछ न कुछ दिक् घेरता है और सदा ही उसी रूप में व्यवस्थित क्यों करती हैं, जैसा कि हम उन्हें इसी प्रकार गुलाब की उपस्थिति किसी न किसी काल में होती देखते हैं, वे क्यों नहीं उन्हें किसी भिन्न अथवा दूसरे रूप में है। अत: काण्ट के अनुसार देश और काल की कल्पना तो व्यवस्थित करती हैं। मिशाल के तौर पर हम हमेशा क्यों यह वस्तुओं के अभाव में संभव है, परंतु किसी भी वस्तु की कल्पना देखते हैं कि मनुष्य की आंखें उसके मुख के ऊपर हैं, उससे भिन्न बिना देश और काल के संभव नहीं है। अत: देश और काल अथवा दूसरे रूप में व्यवस्थित क्यों नहीं ? यद्यपि काण्ट ने संवेदनग्राहिता के पूर्वानुभविक तत्त्व हैं। काण्ट के अनुसार देश इसका समाधान दिया है, जिसका विस्तृत विवेचन और काल पूर्वानुभाविक हैं, यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि नहीं कर सकते। किन्तु आकाश की वास्तविक सत्ता को तो देश और काल अपरिमित (Infinite) हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति स्वीकार करना ही पड़ेगा। अपनी अनुभूतियों में नहीं ला सकता।
लाइनिज के अनुसार भी आकाश की स्वतंत्र सत्ता भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतकों के विचारों को देखने के नहीं होती। वस्तुओं की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों के पश्चात आकाश के संबंध में तीन विचारधाराएँ स्पष्ट होती हैं-- आधार पर हम देश (Space) की कल्पना कर लेते हैं। इस (i) आकाश प्राग्-अनुभव अंत:दर्शन की उपज है।
प्रकार लाइनिज आकाश को जड़ पदार्थों से जोड़ देते हैं। प्रश्न
होता है कि यदि भौतिक पदार्थों का अभाव है तो आकाश के (ii) आकाश जड़ पदार्थों से जुड़ा है या उनका गुणरूप या
अस्तित्व का भी होगा? अत: लाइनिज की यह मान्यता स्वीकारने क्रमरूप है।
योग्य नहीं है। क्योंकि आकाश अनन्त है और भौतिक जगत् (iii) आकाश जड़ और चेतन से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र शांत। आकाश अमूर्त है जबकि भौतिक पदार्थ मूर्त। साथ ही वास्तविकता है।
आकाश को भौतिक पदार्थ का गुण भी मानना उपयुक्त नहीं प्रथम विचारधारा के समर्थकों में काण्ट का नाम प्रमुख
जान पड़ता, जैसा कि डेकार्त ने माना है। स्थान रोकना या स्थान है। इनका मानना है कि आकाश स्वयं में कोई वास्तविक तत्त्व पाना भौतिक पदार्थ का गुण है किन्तु जिसमें स्थान पाया जाता नहीं है, बल्कि हमारे मस्तिष्क की उपज है। चूँकि हम व्यवहार में है, वह तो उससे भिन्न ही होता है। एक ही स्थान में अनेक वास्तविक पदार्थों के विस्तार को देखते हैं और यह अनुभव
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पदाथा का आश्रित है
पदार्थों का आश्रित होना और एक ही पदार्थ का कालांतर में करते हैं कि इसका कोई न कोई आधार होना चाहिए। उस अनेक स्थानों में आश्रित होना आश्रय देने वाले तत्त्व को आश्रित आधार रूप में हम आकाश की कल्पना कर लेते हैं। अर्थात्
तत्त्व से भिन्न कर देता है। दूसरी बात कि आकाश अमूर्त है तथा आकाश आत्मनिष्ठ है, ज्ञाता में निहित है। वास्तविक पदार्थ या भौतिक पदार्थ मूर्त। फिर अमूर्त आकाश मूर्त पदार्थ का गण पदार्थ का गुण नहीं। प्रश्न होता है कि वास्तविक पदार्थों का कैसे बन सकता है? आधार यदि वास्तविक नहीं होता है तो काल्पनिक आश्रय के जैन दर्शन के अनुसार आकाश सर्वव्यापी, एक अमूर्त द्वारा उनका टिकाव कैसे हो सकता है। अतः आकाश को और अनन्त प्रदेश वाला है। 'आकाशस्यावगाहः' आकाश का वास्तविक मानना ही पड़ता है। जहाँ तक आकाश के पूर्वानुभाविक लक्षण है ।१० वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को अंत:दर्शन का प्रश्न है, जो वस्तुओं के प्रत्यक्ष करने के अपरिहार्य स्थान देता है। अत: वह अवगाहन गुणवाला है। स्वरूप की दृष्टि आधार हैं। हमारी सभी संवेदन-सामग्रियाँ देशकाल द्वारा व्यवस्थित से अवर्ण, अगंध, अस्पर्श, अरूपी, अजीव शाश्वत अवस्थित व होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती हैं। काण्ट के इस मत की लोकालोकरूप द्रव्य है ।१९ स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार वह द्रव्य आलोचना करते हुए वर्टेण्डरसेल ने कहा है- यदि यह मान की अपेक्षा से एक द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकालोक लिया जाए कि सभी संवेदन-सामग्रियाँ देश (Space) और काल प्रमाण अर्थात् सर्वव्यापक है। काल की अपेक्षा से वह ध्रुव,
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