Book Title: Akash ki Avadharna Agamo ke Vishesh Sandarbh me Author(s): Vijay Kumar Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ आकाश की अवधारणा : आगमों के विशेष सन्दर्भ में डॉ. विजय कुमार पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.... भारतीय दर्शन की प्रायः सभी शाखाओं में आकाश की फिर देशात्मक। मध्ययुगीन दार्शनिकों में विशेषतः सन्त ऑगस्टाइन अवधारणा देखी जाती है। अंतर केवल मान्यताओं का है। चार्वाक ने देश को वस्तुओं से स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं माना है। उसे पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) के रेनेदेकार्त जो बुद्धिवादी दार्शनिक है, ने देश को व्याप्ति (Extention) रूप में स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन में वसुबन्धु आकाश का कहकर उसे जड़ वस्तुओं का मौलिक गुण माना। उनके अनुसार वर्णन 'तत्राकाशं अनावृत्ति' कहकर करते हैं।' अर्थात् आकाश विस्तार जड़ का भौतिक धर्म है। जो जड़ में निहित होता है जड़ न तो दूसरों को आवृत्त करता है और न ही दूसरों से आवृत्त होता के विस्तार से भिन्न अथवा अलग नहीं माना जा सकता और न है। किसी भी रूप (वस्तु) को अपने में प्रवेश करने से नहीं ही दोनों को एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं। हमें कभी भी रोकता। अत: आकाश धर्म है तथा नित्य अपरिवर्तनशील असंस्कृत किसी ऐसी वस्तु या पदार्थ का बोध नहीं होता जो देश में फैला (जिसका उत्पाद-विनाश नहीं होता) धर्म है। न्याय-वैशेषिक के न हो। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि देकार्त की दृष्टि में अनुसार आकाश एक सरल (अमिश्रित) निरंतर स्थायी तथा विस्तार (Extention) तथा देश (Space) दोनों एक ही हैं। अतः अनन्त द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है जो रंग, रस, गंध और स्पष्ट होता है कि देकार्त के अनुसार विस्तार जड़ पदार्थ का स्पर्श आदि गुणों से रहित है। अपनयन की क्रिया द्वारा स्पष्ट हो मौलिक धर्म है। लाइनिज के अनुसार देश और काल की कोई जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है। वस्तुतः यह अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। उसके अनुसार हम लोग वस्तुओं निष्क्रिय है किन्तु समस्त भौतिक पदार्थ इसके साथ संयुक्त को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों में देखते हैं यथा, यहाँ पाये जाते हैं। सांख्य-दर्शन एकमात्र प्रकृति तत्त्व को मानकर वहाँ दूर नजदीक इत्यादि और इसके आधार पर ही देश की उसी से प्रकृति की सारी वस्तुओं की उत्पत्ति मानता है। इसके कल्पना कर लेते हैं। अतः देश की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। अनुसार शब्द तन्मात्रा से शब्द गुणवाले आकाश की उत्पत्ति उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है-देश (Space) काल, गति, स्थिरता होती है। जैन-दर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा मान्य है। आकार आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति मन से होती है, क्योंकि बुद्धि धर्म, अधर्म, आकाश जीव और पुद्गल पंचास्तिकाय के अंतर्गत ही इनका आधार है, जिनका किसी भी प्रकार बाह्य जगत से आते हैं। इन्हीं पंचास्तिकायों में काल को समावेशित करके छह संबंध होता है। इससे स्पष्ट होता है कि लाइनिज देश की द्रव्यों की सत्ता मानी गई है। आकाश इन्हीं छह द्रव्यों में से एक यथार्थ सत्ता नहीं मानते, क्योंकि वे पूर्ण रूप से इसे मानसिक है। (जैन मतानसार आकाश के स्वरूप की चर्चा आगे की अथवा बौद्धिक मानते हैं। इमानुएल काण्ट के अनुसार देश जाएगी)। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शन में आकाश केवल प्राग अनुभव अंत:दर्शन की उपज है। उनका मानना है के स्वरूप के विषय में मतभिन्नता है। कि देश कोई ऐसा आनुभाविक प्रत्यय नहीं जिसे बाह्य अनुभूतियों - आकाश के विषय में उपर्यक्त मतभिन्नताएँ न केवल भारतीय से पूर्णतः असंबद्ध कहा जाए। यह दिखाने के लिए जो संवेदनाएँ दर्शन बल्कि पाश्चात्य दर्शन में भी देखने को मिलती है। अरस्त हमें प्राप्त होती हैं, उनका बाह्य वस्तुओं से संबंध है तथा यह के देश (Space) विषयक विचारों के बारे में कछ विद्वानों का जानने के लिए कि वे वस्तुएँ न केवल हमसे बाहर और और एक मानना है कि अरस्त-दर्शन में देश वह है जिसमें वस्तएँ स्थित हैं। दूसरे से भिन्न हैं बल्कि वे भिन्न-भिन्न स्थानों पर भी हैं. देश को अन्य विद्वानों के अनुसार अरस्त ने देश की सत्ता को वस्तओं पर उनके आधार रूप में मानना आवश्यक है। तात्पर्य है कि बाह्य निर्भर माना है। प्लॉटिनस ने देश की उत्पत्ति को वस्तओं की अनुभूतियाँ तभी संभव हैं जब संवेदनाएँ देश रूपी साँचे में ढलकर उत्पत्ति के बाद की घटना माना है। वस्तएँ पहले द्रव्यात्मक हैं. हमारी चेतना में प्रवेश करें। अत: सिद्ध है कि देश संवेदन marithroomirandomorridordroidrordnidminim ५३Hairidiodidnidaniodwordbrdairanirandard Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6