Book Title: Aho shrutam E Paripatra 02 Samvat 2071 Meruteras 2015
Author(s): Babulal S Shah
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar Ahmedabad
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पालन करे छे. मनना राग-दोष वगेरे टाळी बावीस दिवस निरतिचार चारित्रनुं पालन करे छे.
__ मृगध्वज मुनि क्षपकश्रेणी मांडी बावीस दिवसना अंते घातीकर्मनो क्षय करी निर्मल केवलज्ञाननी प्राप्ति करे छे. जाणे साक्षात् सुरज ऊग्यो होय तेवो प्रकाश थाय छे. सहु लोकालोकना भावने हस्तआम्लवत् जाणे छे. ते ज समये देवताओ आवी हर्षावेशथी सुवर्णकमळनी रचना करे छे. त्यां बेठा तेजस्वी एवा केवली शोभे छे. राजा अने मंत्री पण समाचार मळता आनंदथी त्यां आवे छे. सह नगरजन पण उल्लसित हृदये त्यां आवे छे. ज्ञानी मृगध्वजमुनि देशना आपे छे. देशना सांभळी सौ पोतपोताना शंसय भांजे छे. पोताना आत्माने धन्य-धन्य माने छे.
देशनाने अंते राजा विनयपूर्वक कहे छे के हे भगवन् शिवगामी, पसाय करी आप आपना अने महिषना वैरनुं कारण कहो. केवली भगवंत पण भविजनना उपकार माटे पोतानो पूरवभव कहे छे. “हुं पूर्वभवमां अश्वग्रीव राजा हतो. आ महिषनो जीव हरिमंसु नामनो मारो नास्तिक मंत्री हतो. कुमतना कारणे जिनधर्मथी विरुद्ध आचरणथी सातमी नरकमां गया. त्यां तेत्रीस सागरोपमनुं आयुष्य युध्ध करता पुरु थयुं. अतिद्वेषथी परस्पर वैर थयुं घणा अशुभ कर्मनुं ऊपार्जन कर्यु. कर्मना भारेपणाथी संसारचक्रमां घणा भव भटक्या. कालरूपी अरघट्ट फर्या करे छे. कर्मन जोर थोड् ओछं थाय छे. चारेय गतिमां जीव भटके छे. नरकगतिना सातेय भागमा घणीवार फरसी अने तिर्यंचगतिमां घणा भवमां घणा दुःखोने सहन करे छे. कर्म-विवर प्राप्त थता अमारो कांईक पुण्योदय जाग्यो.
___ महिषनो जीव तिर्यंचगतिमां महिष तरीके सात वार उत्पन्न थयो. अने दरेक भवमां तेनी हत्या थयेल छे. चारेगतिमां अनेक भव फरता-फरता आ भवमां आवीने मारी साथे तेनो भेटो थयो छे. पूर्वभवना वैरना संस्कारना कारणे मारा वडे तेने गाढ रीते दुःख अपायुं. परंतु कंइक सद्भाग्यना योगथी समाधिनी प्राप्ति थई, शुभध्यान ध्यावता ते महिष अणसण करी देवगतिने पाम्यो छे. ऋद्धिवंत असुरकुमार देव थयो छे. पुण्योदयना प्रभावथी ते अनुक्रमे कर्मनो क्षय करता-करता निर्वाणपदने पामशे.”
__ पूर्वभवना द्वेष संबंधथी केवा कटुफळ भोगववा पडे छे तेवी ज्ञानीनी वाणीने सांभळीने घणा जीव बोध पाम्या. हवे सर्व वैर दूर थयुं छे. मननो रोस खतम थयो छे. अनुक्रमे ते जीव कर्मक्षय करी अक्षयसुखने प्राप्त करशे.
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