Book Title: Ahimsa varttman Sandarbha me
Author(s): Madan Muni
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ साध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ Insurance. - R. .... ॥छाया ॥ हत्वा परात्मानमात्मानं यः करोति सप्राणम् । अल्पानां दिवसानाम् कृते नाशयत्यात्मानम् ॥ ॥दोहा॥ प्राणवान दुख को गिनै, हनै इतर के प्राण । अल्प दिवस दुष्कृत्य से करै आत्मा हान ॥ भावार्थ-जो व्यक्ति दूसरे जीवों के प्राण को नाश करके अपने को ही प्राणवान सिद्ध करता है वह थोड़े ही दिवसों में पापकृत्य द्वारा अपना ही नाश कर डालता है। जब ऐसी स्थिति है तो क्या हमें अपने ही कल्याण के लिए यह विचार नहीं करना चाहिए कि हमारा क्या कर्तव्य है ? हमारे कल्याण का मार्ग कौन सा है ? यदि हम घड़ी भर ठहर कर भी शुद्ध विचार करेंगे तो पायेंगे कि अहिंसा का मार्ग ही वह राजमार्ग है जिस पर आगे बढ़कर हम अपना आत्म कल्याण कर सकते हैं तथा अपने साथ-साथ समस्त मानवता का त्राण भी कर सकते हैं । अतः ॥दोहा॥ भवजलहितरी तुल्लं महल्ल कल्लाणदुम अभय कुल्लं । संजणिय सग्गसिव सुक्ख समुदयं कुवह जीवदयं ।। ॥छाया॥ भवजलाधितरी तुल्यो महाकल्याण द्रुमामय कुल्याम् । सज्जनित स्वर्ग शिव सौख्यं समुदयां कुरु जीवदयाम् ॥ भावार्थ-संसार रूपी समुद्र के लिए नौका तुल्य महा कल्याणकारी कल्पवृक्ष सदृश अभयदान तथा उत्कृष्ट स्वर्ग एवं मोक्ष सुख को प्रकट करने वाली जीव दया करो। यही जीवदया अहिंसा है। मन से भी कभी किसी का अहित न चाहो । वचन से भी कभी किसी का दिल न दुखाओ । काया से कभी किसी प्राणी को, किसी जीव को कष्ट न दो। जीवदया करो। अहिंसक बनो । अपना आत्म-कल्याण साधो । मोक्ष की यदि अभिलाषा हो, भवचक्र से सदा-सदा के लिए यदि मुक्ति पानी हो तो जीवदयामय धर्म का ही आचरण करना चाहिए क्योंकि हिंसा न करने वाला जीव ही अमरण-मोक्ष को प्राप्त करता है। अहिंसा-आचरण से होने वाले स्वहित का विचार विवेकपूर्वक करना ही चाहिए। लोग अज्ञान के कारण इस नश्वर काया को सुख पहुँचाने की इच्छा से, इसे पुष्ट करने की लालसा से, भ्रमवश ऐसा सोचते हैं कि मांसाहार करने से शरीर पुष्ट होता है । यह भयानक भूल है । ऐसा करना महापाप है। अहिंसा के अनुयायी को भक्ष्य अभक्ष्य का विचार अवश्य करना चाहिए । यूरोप, अमेरिका आदि के निवासी यह विचार बहुत कम करते हैं । किन्तु अब वहाँ के विचारवान व्यक्ति भी यह सोचने पर बाध्य हो गए हैं कि मांसाहार का त्याग करना, अहिंसा का आचरण करना ही चाहिए । वे लोग भी अपने "स्वभाव" की ओर लौटने लगे हैं । क्योंकि मानव जाति के स्वभाव की पर्यालोचना करने से स्पष्ट बोध हो जाता है कि मांसादि का खाना, हिंसा का आधार लेना मानव का स्वभाव नहीं है। अपना पेट भरने के लिए १९६ / पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा www.jaineliv

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6