Book Title: Ahimsa varttman Sandarbha me
Author(s): Madan Muni
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 2
________________ ......... .... . ... .............. ........ ................... साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ - ::-------------- है। इसके अनुसार तो वर्तमान वेद से लेकर उपनिषद् पर्यन्त सम्पूर्ण साहित्य का मूल स्रोत ऋषभदेव द्वारा प्रणीत जैन तत्व विचार ही है ।* प्रस्तुत निबन्ध में हमें जैन तत्त्वविचार के अहिंसा पक्ष पर ही विशेष रूप से विचार करना है। अन्यथा इस तत्त्वविचार की श्रेष्ठता के विषय में तो यदि एक-एक बिन्दु पर भी लिखा जाय तो एक-एक महाग्रन्थ लिखे जा सकते हैं । हमने जैन दर्शन की अनादिकालीनता के विषय में संकेत किया तो वह मात्र इसी दृष्टि से कि हम इस दर्शन की श्रेष्ठता को पहले हृदयंगम करलें और तत्पश्चात अहिंसा, जो कि जैन धर्म का आधार है, के महत्त्व को पूरी तरह से समझ सकें। तो आइये, अब हम अहिंसा पर कुछ विचार करें। अहिंसा का महत्त्व-अनिवार्यता एवं उपादेयता विश्व इतिहास को उठाकर देखिए, आप पायेंगे कि धर्म के नाम पर धार्मिक असहिष्णुता के कारण जितनी हिंसा हुई है, असमर्थ लोगों पर जितने अत्याचार हुए हैं उतने किसी अन्य कारण से नहीं। कितने खेद का विषय है कि धर्म मनुष्य को आन्तरिक शक्ति, आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करता है, किन्तु उसी का दुरुपयोग करके बौद्धिक हिंसा का आश्रय लेकर, मनुष्य ने स्वयं अपना तथा समस्त मानव जाति का घोर अकल्याण किया है । ऐसी धार्मिक असहिष्णुता के कारण भीषण हिंसक कृत्य न केवल हमारे ही देश में, बल्कि समस्त विश्व में होते रहे हैं। इसके स्थान पर यदि मानव ने अहिंसा की उपादेयता को समझा होता तो ये भीषण हिंसक कृत्य न हुए होते और मनुष्य बड़ा सुखी होता। __ जैन दर्शन में अहिंसा सर्वोपरि है। हम उसे जैन दर्शन का, जीवन का पर्यायवाची ही कह सकते हैं, यह बात हमने प्रारम्भ में भी कही थी और उसे पुनः दुहराते हैं। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा है कि जो तीर्थंकर पूर्व में हुए, वर्तमान में हैं, तथा भविष्य में होंगे, उन सबने अहिंसा का प्रतिपादन किया है। अहिंसा ही ध्रुव तथा शाश्वत धर्म है । स्वार्थी लोग जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सम्बन्ध में लोगों ने भ्रम उत्पन्न करते हैं, उसे अव्यवहार्य बताते हैं, कहते हैं कि यह तो मात्र वैयक्तिक बात है, अतः सामाजिक एवं राजकीय प्रश्नों के लिए अनुपयोगी है । किन्तु सच्चाई यह है कि ऐसा कहने वाले लोगों में जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित अहिसा का पूर्ण अध्ययन किया ही नहीं है, उसे समझा ही नहीं है। यदि वे अहिंसा के अर्थ को, उसके महत्त्व को हृदयंगम कर पाते, यह समझ सकते कि मन-वचनकाया से मनुष्य को हिंसा से दूर रहना चाहिए तो आज संसार की ऐसी दयनीय स्थिति न होती, विश्व विनाश के कगार पर जा खड़ा न होता। हमारे देश के जीवन में अहिंसा की जो छाप दिखाई देती है वह जैन दर्शन की ही देन है। सामूहिक प्रश्नों के निराकरण हेतु अहिंसा का प्रयोग हमारे देश में बहुत सफल रहा है और समस्त विश्व के लिए पथ-प्रदर्शन करने वाला है । कौन नहीं जानता कि महात्मा गांधी ने एक ऐसी महाशक्ति के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी जिसके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त ही नहीं होता था और उस लड़ाई में विजय किसकी हुई ? हमारी-हमारी "अहिंसा" की। - - * न्यायावतार वार्तिकवृत्ति (प्रस्तावना) १९४ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा • www.jainelibrats

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