Book Title: Ahimsa varttman Sandarbha me Author(s): Madan Muni Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 1
________________ H साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ i iiiiiiiiiiiiiHRARRRRRRH WANNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNN M अहिंसा : वर्तमान सन्दर्भ में WINNNNNNNNNNNNNNNNNNN -श्री मदन मुनि 'पथिक' सन्दर्भ वर्तमान का है, किन्तु यह जान लेने योग्य बात है कि अहिंसा का महत्व आजीवन है। भूतकाल हो, वर्तमान काल हो अथवा भविष्य । क्योंकि अहिंसा और जीवन एक ही है। इन्हें पर्यायवाची माना जाना चाहिए । स्पष्ट है कि जहाँ हिंसा है वहाँ जीवन नहीं है । हिंसा तथा जीवन तो स्वतः विरोधी हैं-दो भिन्न ध्र व । यह बताने की आवश्यकता हो कहाँ रहती है कि हिंसा है तो फिर जीवन नहीं। और यदि जोवन है, जीवन को होना है, तो फिर अहिंसा तो अनिवार्य स्थिति ही हुई जीवन की। इस अकाट्य तथ्य की धारणा के पश्चात हम अहिंसा के महत्व का विचार करें, विशेष रूप से आधुनिक सन्दर्भ में। अहिंसा जैन धर्म तथा दर्शन का आधारभूत लक्षण अथवा स्तम्भ है । यह वह नींव है, जिस पर जैन दर्शन का भव्य एवं अद्वितीय प्रासाद स्थित है-वह प्रासाद, जहाँ सुख है, शान्ति है-ऐसा शाश्वत सुख तथा ऐसी शाश्वत शान्ति जिसका फिर कभी कहीं भंग नहीं है। और ऐसी स्थिति किसी अन्य धर्म में नहीं है। संसार में अनेक धर्म पहले भी थे, अब भी हैं, आगे भी होंगे। किन्तु केवल जैन धर्म ही है जो अकाट्य रूप से अनादि है। वर्तमान में विश्व के प्रमुख धर्म हैं-हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म तथा इस्लाम धर्म । इनमें से इस्लाम, ईसाई तथा बौद्ध धर्म तो पिछले दो-अढाई हजार वर्ष से ही अस्तित्व में आए हैं, यह सारे संसार को विदित है । शेष रहे हिन्दू तथा जैन धर्म । इन दोनों के अनुयायी अपने अपने धर्म को अनादिकालीन होने का दावा करते हैं किन्तु खोज करने पर प्रकट होता है कि वेदों और भागवत आदि ग्रन्थों में, जोकि हिन्दू धर्मशास्त्रों में अधिक से अधिक प्राचीन माने गए हैं, जैनों के वर्तमान तीर्थंकर चौबोसी के पहले तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं। इससे सहज ही यह सिद्ध हो जाता है कि इन दोनों धर्मों में भी जैन धर्म ही अधिक प्राचीन है । ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा सिद्ध इस बात को अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार किया है। जैन अनुश्र ति के अनुसार भगवान महावीर ने किसी नए तत्त्वदर्शन का प्रतिपादन नहीं किया है । भगवान पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान से उनका कोई मतभेद नहीं है किन्तु जैन अनुश्रु ति उससे भी आगे जाती है। उसके अनुसार श्रीकृष्ण के समकालीन भगवान अरिष्टनेमि की परम्परा को ही भगवान पार्श्वनाथ ने ग्रहण किया था । और स्वयं अरिष्टनेमि ने प्रागैतिहासिक काल में होने वाले नमिनाथ से । इस प्रकार यह अनुश्र ति भगवान ऋषभदेव, जो कि भरत चक्रवर्ती के पिता थे, तक पहुँचा देती अहिंसा : वर्तमान सन्दर्भ में : मदन मुनि 'पथिक' | १६३ wwwIAIROINSPage Navigation
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