Book Title: Ahimsa varttman Sandarbha me Author(s): Madan Muni Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 3
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ किन्तु गाँधी चले गये और संसार फिर से अहिंसा के महत्त्व को भूलने लगा है। परिणाम हमारे सामने दिखाई देने लगे हैं । विश्व के स्वार्थी, अदूरदर्शी, अधर्मी राजनेता समस्याओं के निराकरण हेतु मिल-बैठकर अहिंसक भाव से प्रश्नों को हल करने के स्थान पर हिंसक वातावरण का सृजन कर रहे हैं तथा अशान्ति और सर्वनाश को आमंत्रित कर रहे हैं । इस विकट वेला में जैन दर्शन की “अहिंसा" ही मानवता का त्राण करने में समर्थ हो सकती है । अन्य कोई उपाय नहीं है। अहिंसा क्या है मन-वचन-काया, इन त्रिविध योगों से किसी को भी त्रिकरणपूर्वक कष्ट न पहुँचाना ही अहिंसा का वास्तविक लक्षण है। कुछ लोग प्राणों के अव्यपरोपण अर्थात् अनतिपात को ही अहिंसा कहते हैं, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से, सांगोपांग मनन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि केवल प्राण अव्यपरोपण को ही अहिंसा नहीं कहते हैं, प्रत्युत प्राणियों को किंचित् मात्र भी किलामना नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है। प्रतिपक्ष कितना भी शक्तिशाली हो, उसके प्रतिकार का सर्वोत्तम साधन अहिंसा ही है। अन्य किसी शस्त्र की आवश्यकता ही नहीं, अहिंसा का अमोघ अस्त्र विजय प्रदान करने वाला है, अन्तिम विजय, आन्तरिक आत्म-विजय। हिंसा से होता क्या है ? हिंसा से हिंसा ही बढ़ती है । हिंसा प्राणों को चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण कराती रहती है जबकि अहिंसा उसे मुक्ति के पथ पर ले जाती है। कोई प्राणी अज्ञानवश थोड़े से समय विशेष के लिए हिंसा का आधार लेकर भ्रमित होकर विचार कर सकता है कि वह विजयी हुआ, अथवा उसे कुछ लाभ हुआ, किन्तु अन्त में यह विचार असत्य ही सिद्ध होगा। कहा गया है ॥दोहा॥ जो जीववहं काउं करेइ खणमित्तमप्पणोतित्तिं । छेअण भेअणपमुहं नरयदुहं सो चिरं लहइ । ॥छाया ॥ यो जीववधं कृत्वा करोति क्षणमात्रमात्मन सतृप्तिं । छेदन भेदन प्रमुखं नरकदुःख स चिरं लभते ॥ ॥दोहा॥ अल्पकाल सुख मान के, हनै प्राणि को प्राण । नरकमांहि चिरकाल तक, छिदे भिदे नहिं त्राण ॥ अर्थ स्पष्ट है। जो भी प्राणी क्षणिक सुख की लालसा से किसी अन्य प्राणी को कष्ट पहुँचाता है, उसका नाश करता है, उसे फिर घोर कष्ट पाना पड़ता है, चिरकाल पर्यन्त नारकीय दुःखों का भोग करना पड़ता है। अधिक प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी एक कथन पर जरा दृष्टिपात कीजिए हंतुणं परप्पाणे अप्पाणं जो करई सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं करण णासेइ अप्पाणं ।। अहिंसा : वर्तमान सन्दर्भ में : मदन मुनि 'पथिक' | १९५ . . . . . . . . www.jain . . .Page Navigation
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