Book Title: Ahimsa Ek Tulnatmaka Adhyayan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 4
________________ अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ३१७ विवशता वश करनी पड़ती है, यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है एवं वनस्पति ही जीवनयुक्त हैं, वरन् समग्र लोक ही सूक्ष्म जीवों से अथवा बाह्य परिस्थितिजन्य, यहां भी कर्ता दोषी है, कर्म का बंधन भरा हुआ है। क्या ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति पूर्ण अहिंसक हो सकता भी होता है लेकिन पाश्चात्ताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो है? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को प्रश्न उठाया गया है। जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएं स्वयं के द्वारा आरोपित के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य हैं। बाध्यता के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है। बाध्यताओं की स्वीकृति नहीं है जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो, पुन: कितने ही कायरता एवं शरीर-मोह की प्रतीक है। बंधन में होना और बंधन को ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, मात्र अनुमान से ही जाने मानना यह दोनों ही कर्ता की विकृतियाँ हैं और जब तक ये विकृतियां जाते हैं। मनुष्य के पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं कर्ता स्वयं दोषी है ही। तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के हैं अर्थात् मर जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं कारण होती है और न विवशता वश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बचा जा सकता है। प्राचीन युग से ही जैन विचारकों की दृष्टि भी बावजूद भी हो जाती है। जैन विचारणा के अनुसार हिंसा की यह इस प्रश्न की ओर गई है। ओघनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु इस प्रश्न तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है। के सन्दर्भ में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जिनेश्वर भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व हिंसा के विभिन्न रूप में साधक का अहिंसकत्व अन्त: में आध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से हिंसक-कर्म की उपरोक्त तीन विभिन्न अवस्थाओं में यदि तीसरी ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं।३५ जैन विचारणा के हिंसा हो जाने की अवस्था को छोड़ दिया जावे तो हमारे समक्ष हिंसा अनुसार भी बाह्य हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं। जब तक के दो रूप बचते हैं। १. हिसा की गई हो और २. हिंसा करनी पड़ी शरीर तथा शारीरिक क्रियायें हैं तब तक कोई भी व्यक्ति बाह्य दृष्टि हो। वे दशाएं जिनमें हिंसा करना पड़ती है, दो प्रकार की हैं। से पूर्ण अहिंसक नहीं रह सकता। १. रक्षणात्मक और २. आजीविकात्मक-जिसमें भी दो बातें सम्मिलित हैं जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग, हिंसा, अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तःकरणहै - जैन आचार-दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार वर्ग माने हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर गये है नहीं है जितना वह साधक की आन्तरिक अवस्था पर आधारित है। १. संकल्पजा-संकल्प या विचार पूर्वक हिंसा करना। यह हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक आक्रमणात्मक हिंसा है। है। हिंसा-विचार में संकल्प की प्रमुखता जैन आगमों में स्वीकार की २. विरोधजा-स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों गई है। भगवतीसूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। (अधिकारों) के आरक्षण के लिए विवशता वश हिंसा करना। यह गणधर गौतम, महावीर से प्रश्न करते हैं- हे भगवन्! किसी रक्षणात्मक हिंसा है। श्रमणोपासक ने त्रस प्राणी के वध नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो लेकिन ३. उद्योगजा-आजीविका के उपार्जन अथवा उद्योग एवं व्यवसाय पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो। यदि भूमि खोदते के निमित्त होने वाली हिंसा। यह उपार्जनात्मक हिंसा है। हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाए तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग ४. आरम्भजा-जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा-जैसे । हुई? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित भोजन के पकाने में। यह निर्वाहात्मक हिंसा है। नहीं है, उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं हुई है।३६ इस प्रकार हम देखते हैं कि संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा हिंसा के कारण अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन साहित्य में भी यह जैन आचार्यों ने हिंसा के कारण माने हैं- १. राग, २. द्वेष, धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'सावधानी ३. कषाय और ४. प्रमाद। पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी-कभी कीट, पतंग आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दबकर मर भी जाते हैं, लेकिन हिंसा के साधन उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्मबन्ध भी नहीं बताया गया है, जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है, वे तीन हैं-मन, क्योंकि वह अन्तः में सर्वतोभावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने वचन और शरीर। व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों के के कारण निष्पाप है। जो विवेकवान्, अप्रमत्त साधक हृदय से निष्पाप द्वारा करते हैं। है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो जाने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है३८ लेकिन जो प्रमत्त क्या पूर्ण अहिंसक होना संभव है? व्यक्ति है उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं वह जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है। मात्र यही नहीं वरन जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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