Book Title: Ahimsa Ek Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 1
________________ जैनदर्शन में अहिंसा का स्थान अहिंसा जैनदर्शन का प्राण है। जैनदर्शन में अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा भगवती है। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं'भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे ओषधि और वन में जैसे सार्थवाह का साथ, आधारभूत है वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है अहिंसा घर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है।" वही मात्र एक ऐसा शाश्वत धर्म है, जिसका जैन तीर्थकर उपदेश करते हैं। आचांगसूत्र में कहा गया है—भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यही उपदेश करते हैं कि सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए और न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है, जिसका समस्त लोक के दुःख को जानकर अर्हतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है।" सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह है कि हिंसा न करें, अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है. इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए।' दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के प्रति संयम में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर ने इसको 'प्रथम स्थान' पर कहा है । भक्तपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।" आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार तो जैन आचार विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत है; आचार के नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्यभाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जनसाधारण को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं। वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष है।" जैन आचार- दर्शन में अहिंसा वह आधार - वाक्य है जिससे आचार के सभी नियम निर्गमित होते हैं। भगवती आराधना में कहा गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) है।" अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध आचार दर्शन में अहिंसा का स्थान बौद्ध दर्शन के दस शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है चतुःशतक में कहा गया है— तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है। धम्मपद में बुद्ध ने हिंसा को अनार्य कर्म कहा है। वे कहते हैं जो प्राणियों की हिंसा करता है वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा जाता है।" - Jain Education International बुद्ध हिंसा एव युद्ध के नीतिशास्त्र के तीव्र विरोधी हैं, धम्मपद में कहा गया है कि विजय से वैर उत्पन्न होता है, पराजित दुःखी होता है जो जय पराजय को छोड़ चुका है उसे ही सुख है, उसे ही शांति है।" अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध इस बात को अधिक स्पष्ट कर देते हैं। कि हिंसक व्यक्ति इसी जगत में नारकीय जीवन का सृजन कर लेता है जबकि अहिंसक व्यक्ति इसी जगत् में स्वर्गीय जीवन का सृजन कर लेता है। वे कहते हैं— 'भिक्षुओ, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो कौन से तीन ? 'स्वयं प्राणी-हिंसा से विरक्त रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करता । " महायान सम्प्रदाय में करुणा और मैत्री की भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा हुआ है। हिन्दू दर्शन और गीता में अहिंसा का स्थान गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का ही भाव कहा गया है, उसको देवी- सम्पदा एवं सात्विक तप बताया है । १२ महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। १३ मात्र यही नहीं उसमें भी धर्म के उपदेश का उद्देश्य प्राणियों को हिंसा से विरत करना माना गया है। 'अहिंसा ही धर्म का सार है' इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत के लेखक का कथन है- "प्राणियों की हिंसा न हो इसलिए धर्म का उपदेश दिया गया है अतः जो अहिंसा से युक्त है वही धर्म है " ९४ । लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में तो बार-बार अर्जुन 'युद्ध करने का निर्देश दिया गया है, उसका युद्ध से विमुख होना निन्दनीय एवं कायरतापूर्ण माना गया है। फिर गीता को अहिंसा की विचारणा की समर्थक कैसे माना जाए? इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ कहूँ, इसके पहले हमें गीता के व्याख्याकारों की दृष्टि से ही इसका समाधान पा लेने का प्रयास करना चाहिये। गीता के आद्य टीकाकार आचार्य शंकर 'युद्धस्य' (युद्धकर) शब्द की टीका में लिखते हैं कि यहाँ युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है।" मात्र यही नहीं आचार्य गीता के 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' के अधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं" जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय एवं प्रतिकूल हैं वैसे सब प्राणियों को भी दुःख अप्रिय व प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता वह अहिंसक है ऐसा अहिंसक पुरुष पूर्णज्ञान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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