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जैनदर्शन में अहिंसा का स्थान
अहिंसा जैनदर्शन का प्राण है। जैनदर्शन में अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा भगवती है। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं'भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे ओषधि और वन में जैसे सार्थवाह का साथ, आधारभूत है वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है अहिंसा घर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है।" वही मात्र एक ऐसा शाश्वत धर्म है, जिसका जैन तीर्थकर उपदेश करते हैं। आचांगसूत्र में कहा गया है—भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यही उपदेश करते हैं कि सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए और न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है, जिसका समस्त लोक के दुःख को जानकर अर्हतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है।" सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह है कि हिंसा न करें, अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है. इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए।' दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के प्रति संयम में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर ने इसको 'प्रथम स्थान' पर कहा है । भक्तपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।" आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार तो जैन आचार विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत है; आचार के नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्यभाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जनसाधारण को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं। वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष है।" जैन आचार- दर्शन में अहिंसा वह आधार - वाक्य है जिससे आचार के सभी नियम निर्गमित होते हैं। भगवती आराधना में कहा गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) है।"
अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
बौद्ध आचार दर्शन में अहिंसा का स्थान
बौद्ध दर्शन के दस शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है चतुःशतक में कहा गया है— तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है। धम्मपद में बुद्ध ने हिंसा को अनार्य कर्म कहा है। वे कहते हैं जो प्राणियों की हिंसा करता है वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा जाता है।"
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बुद्ध हिंसा एव युद्ध के नीतिशास्त्र के तीव्र विरोधी हैं, धम्मपद में कहा गया है कि विजय से वैर उत्पन्न होता है, पराजित दुःखी होता है जो जय पराजय को छोड़ चुका है उसे ही सुख है, उसे ही शांति है।"
अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध इस बात को अधिक स्पष्ट कर देते हैं। कि हिंसक व्यक्ति इसी जगत में नारकीय जीवन का सृजन कर लेता है जबकि अहिंसक व्यक्ति इसी जगत् में स्वर्गीय जीवन का सृजन कर लेता है। वे कहते हैं— 'भिक्षुओ, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो कौन से तीन ? 'स्वयं प्राणी-हिंसा से विरक्त रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करता । "
महायान सम्प्रदाय में करुणा और मैत्री की भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा हुआ है।
हिन्दू दर्शन और गीता में अहिंसा का स्थान
गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का ही भाव कहा गया है, उसको देवी- सम्पदा एवं सात्विक तप बताया है । १२ महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। १३ मात्र यही नहीं उसमें भी धर्म के उपदेश का उद्देश्य प्राणियों को हिंसा से विरत करना माना गया है। 'अहिंसा ही धर्म का सार है' इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत के लेखक का कथन है- "प्राणियों की हिंसा न हो इसलिए धर्म का उपदेश दिया गया है अतः जो अहिंसा से युक्त है वही धर्म है " ९४ । लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में तो बार-बार अर्जुन 'युद्ध करने का निर्देश दिया गया है, उसका युद्ध से विमुख होना निन्दनीय एवं कायरतापूर्ण माना गया है। फिर गीता को अहिंसा की विचारणा की समर्थक कैसे माना जाए? इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ कहूँ, इसके पहले हमें गीता के व्याख्याकारों की दृष्टि से ही इसका समाधान पा लेने का प्रयास करना चाहिये। गीता के आद्य टीकाकार आचार्य शंकर 'युद्धस्य' (युद्धकर) शब्द की टीका में लिखते हैं कि यहाँ युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है।" मात्र यही नहीं आचार्य गीता के 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' के अधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं" जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय एवं प्रतिकूल हैं वैसे सब प्राणियों को भी दुःख अप्रिय व प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता वह अहिंसक है ऐसा अहिंसक पुरुष पूर्णज्ञान
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अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
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में स्थित है वह सब योगियों में पर उत्कृष्ट माना जाता है"१६ निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं।२० वस्तुतः प्राणियों के
महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा की प्रतिपादक मानते हैं उनका जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना कथन है "गीता की मुख्य शिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है-हिंसा बिना करता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययन क्रोध, आसक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें सत्व, रजस् सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते
और तमस् गुणों के रूप में घृणा, क्रोध आदि की अवस्थाओं से ऊपर हुए कहा गया है कि 'भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन के प्रति उठने को कहती है फिर हिंसा कैसे हो सकती है। डा० राधाकृष्णन प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जानकर, भी गीता को अहिंसा की प्रतिपादक मानते हैं, वे लिखते हैं “कृष्ण उनकी कभी भी हिंसा न करें।२१ यह मैकेन्जी की भय पर अधिष्ठित अर्जुन को युद्ध करने का परामर्श देते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं अहिंसा की धारणा का सचोट उत्तर है। जैन आगम आचारांगसूत्र में है कि वे युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहे हैं। युद्ध तो एक ऐसा तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही अहिंसा सिद्धान्त की प्रस्तावना अवसर आ पड़ा है, जिसका उपयोग गुरु उस भावना की ओर संकेत की गई है। जो लोक (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह करने के लिए करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है।२२ इसी ग्रन्थ में आगे भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिये। यहाँ हिंसा या अहिंसा का प्रश्न पूर्ण-आत्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए भगवान् महावीर कहते नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न हैं—जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना है, जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक चाहता है वह तू ही है और जिसे तू परिताप देना चाहता है वह भी विकास या सत्व गुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान तू ही है।२३ भक्तपरिज्ञा से भी इसी कथन की पुष्टि होती है उसमें
और वासना की उपज है। अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि लिखा है किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत: अपनी ही हत्या वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया है। गीता हमारे सम्मुख है और अन्य जीवों पर दया अपनी ही दया है।२४ जो आदर्श उपस्थित करती है, वह हिंसा का नहीं अपितु अहिंसा का भगवान बुद्ध ने भी अहिंसा के आधार के रूप में इसी 'आत्मवत् है। कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग और द्वेष के सर्वभूतेषु' की भावना को ग्रहण किया था। सुत्तनिपात में वे कहते बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति हैं कि जैसा मैं हूँ वैसे ही ये सब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है।१८
हैं वैसा ही मैं हूँ इस प्रकार अपने समान सब प्राणियों को समझकर इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता भी अहिंसा की समर्थक है। न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरों से कराये।२५ । मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेष-बुद्धि पूर्वक विवशता में करना गीता में भी अहिंसा की भावना के आधार के रूप में 'आत्मवत् पड़े ऐसी हिंसा का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है उससे यह सर्वभूतेषु' की उदात्त धारणा ही है। यदि हम गीता को अद्वैतवाद की नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है। अपवाद के रूप समर्थक माने तो अहिंसा के आधार की दृष्टि से जैन दर्शन और अद्वैतवाद में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैनागमों में यह अन्तर हो सकता है कि जहाँ जैन परम्परा में सभी आत्माओं में भी उपलब्ध हो जाता है।
की तात्त्विक समानता के आधार पर अहिंसा की प्रतिष्ठा की गई है
वहां अद्वैतवादी विचारणा में तात्त्विक अभेद के आधार पर अहिंसा अहिंसा का आधार
की स्थापना की गई है। कोई भी सिद्धान्त हो, अहिंसा के उद्भव की अहिंसा की भावना के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ दृष्टि से महत्त्व की बात यही है कि अन्य जीवों के साथ समानता भ्रान्त-धारणाओं को प्रश्रय मिला है। अत: उन पर सम्यकरूपेण विचार या अभेद का वास्तविक संवेदन ही अहिंसा की भावना का मूल उद्गम कर लेना अवश्यक है। मैकेन्जी ने अपने 'हिन्दू एथिक्स' में इस भ्रान्त है।२६ जब व्यक्ति में इस संवेदनशीलता का सच्चे रूप में उदय हो विचारणा को प्रस्तुत किया है कि अहिंसा के प्रत्यय का निर्माण भय जाता है, तो हिंसा का विचार असम्भव हो जाता है। के आधार पर हुआ है। वे लिखते हैं- असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से देखते हैं और भय की यह धारणा ही अहिंसा जैनागमों में अहिंसा की व्यापकता का मूल है। लेकिन मैं समझता हूँ कोई भी प्रबुद्ध विचारक मैकेन्जी जैन विचारणा में अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है, इसका की इस धारणा से सहमत नहीं होगा। जैनागमों के आधार पर भी बोध हमें प्रश्नव्याकरणसूत्र से हो सकता है, जिसमें अहिंसा के इस धारणा का निराकरण किया जा सकता है। अहिंसा का मूलाधार निम्न साठ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं-२७ १. निर्वाण, २. निर्वृत्ति, जीवन के प्रति सम्मान एवं समत्वभावना है। समत्वभाव से सहानुभूति, ३. समाधि, ४. शान्ति, ५. कीर्ति, ६. कान्ति, ७. प्रेम ८. वैराग्य, समानुभूति एवं आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का ९. श्रुतांग, १०. तृप्ति, ११. दया, १२. विमुक्ति, १३. क्षान्ति, १४. विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्यक् आराधना, १५. महती, १६. बोधि, १७. बुद्धि, १८. धृति, सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है- १९. समृद्धि, २०. ऋद्धि, २१. वृद्धि, २२. स्थिति (धारक), सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अत: २३. पुष्टि (पोषक), २४. नन्द (आनन्द) २५. भद्रा, २६. विशुद्धि,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२७. लब्धि, २८. विशेष दृष्टि, २९. कल्याण, ३०. मंगल, मन, वाणी और शरीर इन का विविध बल तथा श्वसन-क्रिया एवं ३१. प्रमोद, ३२. विभूति, ३३. रक्षा, ३४. सिद्धावास, ३५. अनास्रव, आयुष्य, ये दस प्राण हैं और इन प्राण-शक्तियों के वियोजीकरण को ३६. कैवल्यस्थान, ३७. शिव, ३८. समिति, ३९. शील, ४०. संयम, ही द्रव्य दृष्टि से हिंसा कहा जाता है। यह हिंसा की द्रव्य दृष्टि ४१. शील-परिग्रह, ४२. संवर, ४३. गुप्ति, ४४. व्यवसाय, से की गई परिभाषा है। जो कि हिंसा के बाह्य पक्ष पर बल देती है। ४५. उत्सव, ४६. यज्ञ, ४७. आयतन, ४८. यतन, ४९. अप्रमाद, भाव-हिंसा हिंसक विचार है, जबकि द्रव्य-हिंसा हिंसक-कर्म है। ५०. आश्वासन, ५१. विश्वास, ५२. अभय, ५३. सर्व अनाघात (किसी भाव-हिंसा मानसिक अवस्था है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भावानात्मक को न मारना) ५४. चोक्ष (स्वच्छ) ५५. पवित्र, ५६. शुचि, पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा की है। उनका कथन ५७: पूता, ५८. विमला, ५९. प्रभात और ६०. निर्मलतर। है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना
इस प्रकार जैन आचार दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि हिंसा है।३१ हिंसा की एक पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थ सूत्र में मिलती है। को लेकर उपस्थित होता है, उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा के तत्वार्थ सूत्र के अनुसार राग, द्वेष, अविवेक आदि प्रमादों से युक्त ही विभिन्न रूप हैं और अहिंसा ही एकमात्र सद्गुण है।
होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है। २२
अहिंसा क्या है?
हिंसा के प्रकार हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है,२८ यह अहिंसा की निषेधात्मक जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव इन दो आधारों पर हिंसा के परिभाषा है। लेकिन मात्र हिंसा का छोड़ना अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक चार विभाग किये हैं-१. मात्र शारीरिक हिंसा २. मात्र वैचारिक हिंसा अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती। वह एक ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा और ४. शाब्दिक हिंसा। मात्र शारीरिक आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा हिंसा-यह ऐसी द्रव्य हिंसा है, जिसमें हिंसक-क्रिया तो सम्पन्न हुई मात्र बाह्य बनकर रह जाती है, जबकि आध्यात्मिकता तो आन्तरिक हो लेकिन हिंसा के विचार का अभाव हो। उदाहरणार्थ सावधानी पूर्वक होती है। हिंसा नहीं करना यह अहिंसा का शरीर हो सकता है अहिंसा चलते हुए भी दृष्टिदोष या सूक्ष्म जन्तु के नहीं दिखाई देने पर हिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना, यह अहिंसा के सम्बन्ध में हो जाना। मात्र वैचारिक हिंसा-यह भाव हिंसा है इसमें हिंसा की मात्र स्थूल दृष्टि है। लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैन विचारणा क्रिया तो अनुपस्थित होते है लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थिती होता अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है। जैन है। अर्थात् कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है लेकिन बाह्य परिस्थिति आचार दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व अहिंसा शाब्दिक रूप में यद्यपि नकरात्मक वश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है। जैसे कैदी का है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव न्यायाधीश की हत्या करने का विचार (परम्परागत दृष्टि के अनुसार ही विधायक रही है। सर्व के प्रति आत्मभाव, करुणा और मैत्री की तंदुलमच्छ एवं कालकौसरिक कसाई के उदाहरण इसके लिए दिये विधायक अनुभूतियों से ही अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। हिंसा जाते हैं)। वैचारिक एवं शारीरिक हिंसा-जिसमें हिंसा का विचार नहीं करना, यही मात्र अहिंसा नहीं है। अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है, और हिंसा की क्रिया दोनों ही उपस्थित हों जैसे संकल्प पूर्वक की वह हमारी आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही गई हत्या। शाब्दिक हिंसा-जिसमें न तो हिंसा का विचार हो और हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था ही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु ओघनियुक्ति न हिंसा की क्रिया, मात्र हिंसक शब्दों का उच्चारण हो, जैसे में लिखते हैं-पारमार्थिक दृष्टिकोण से आत्मा ही हिंसा है और सुधार-भावना की दृष्टि से माता-पिता का बालकों पर या गुरु का आत्मा ही अहिंसा है; प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा ही शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना।३२ नैतिकता या बंधन की तीव्रता अहिंसा है।२९
की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमश: शाब्दिक हिंसा की
अपेक्षा संकल्परहित मात्र शारीरिक हिंसा, संकल्परहित शारीरिक हिंसा द्रव्य एवं भाव-हिंसा
की अपेक्षा मात्र वैचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना संकल्प युक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गई है। आवश्यक है कि जैन विचारणा हिंसा के दो पक्षों पर विचार करती है, एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में हिंसा की विभिन्न स्थितियाँ द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा के सम्बन्ध में एक स्थूल एवं वस्तुत: हिंसा की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं- १. हिंसा बाह्य दृष्टिकोण है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, की गई हो, २. हिंसा करना पड़ी हो और ३. हिंसा हो गई हो। प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैन विचारणा आत्मा को पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई हो तो वह संकल्प अपेक्षाकृत रूप से नित्य मानती है। अत: हिंसा के द्वारा जिसका हनन युक्त है और यदि अचेतन रूप से की गई हो तो वह प्रमाद युक्त होता है वह आत्मा नहीं, वरन् 'प्राण' है- प्राण जैविक शक्ति है। है। हिंसक- क्रिया चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई वहाँ या प्रमाद के कारण जैन विचारणा में प्राण दस माने गये हैं। पांच इन्द्रियों की पाँच शक्तियां, हुई हो कर्ता दोषी है। दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु
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अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
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विवशता वश करनी पड़ती है, यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है एवं वनस्पति ही जीवनयुक्त हैं, वरन् समग्र लोक ही सूक्ष्म जीवों से अथवा बाह्य परिस्थितिजन्य, यहां भी कर्ता दोषी है, कर्म का बंधन भरा हुआ है। क्या ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति पूर्ण अहिंसक हो सकता भी होता है लेकिन पाश्चात्ताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो है? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को प्रश्न उठाया गया है। जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएं स्वयं के द्वारा आरोपित के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य हैं। बाध्यता के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है। बाध्यताओं की स्वीकृति नहीं है जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो, पुन: कितने ही कायरता एवं शरीर-मोह की प्रतीक है। बंधन में होना और बंधन को ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, मात्र अनुमान से ही जाने मानना यह दोनों ही कर्ता की विकृतियाँ हैं और जब तक ये विकृतियां जाते हैं। मनुष्य के पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं कर्ता स्वयं दोषी है ही। तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के हैं अर्थात् मर जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं कारण होती है और न विवशता वश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बचा जा सकता है। प्राचीन युग से ही जैन विचारकों की दृष्टि भी बावजूद भी हो जाती है। जैन विचारणा के अनुसार हिंसा की यह इस प्रश्न की ओर गई है। ओघनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु इस प्रश्न तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है। के सन्दर्भ में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जिनेश्वर
भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व हिंसा के विभिन्न रूप
में साधक का अहिंसकत्व अन्त: में आध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से हिंसक-कर्म की उपरोक्त तीन विभिन्न अवस्थाओं में यदि तीसरी ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं।३५ जैन विचारणा के हिंसा हो जाने की अवस्था को छोड़ दिया जावे तो हमारे समक्ष हिंसा अनुसार भी बाह्य हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं। जब तक के दो रूप बचते हैं। १. हिसा की गई हो और २. हिंसा करनी पड़ी शरीर तथा शारीरिक क्रियायें हैं तब तक कोई भी व्यक्ति बाह्य दृष्टि हो। वे दशाएं जिनमें हिंसा करना पड़ती है, दो प्रकार की हैं। से पूर्ण अहिंसक नहीं रह सकता। १. रक्षणात्मक और २. आजीविकात्मक-जिसमें भी दो बातें सम्मिलित हैं जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग, हिंसा, अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तःकरणहै -
जैन आचार-दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार वर्ग माने हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर गये है
नहीं है जितना वह साधक की आन्तरिक अवस्था पर आधारित है। १. संकल्पजा-संकल्प या विचार पूर्वक हिंसा करना। यह हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक आक्रमणात्मक हिंसा है।
है। हिंसा-विचार में संकल्प की प्रमुखता जैन आगमों में स्वीकार की २. विरोधजा-स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों गई है। भगवतीसूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। (अधिकारों) के आरक्षण के लिए विवशता वश हिंसा करना। यह गणधर गौतम, महावीर से प्रश्न करते हैं- हे भगवन्! किसी रक्षणात्मक हिंसा है।
श्रमणोपासक ने त्रस प्राणी के वध नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो लेकिन ३. उद्योगजा-आजीविका के उपार्जन अथवा उद्योग एवं व्यवसाय पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो। यदि भूमि खोदते के निमित्त होने वाली हिंसा। यह उपार्जनात्मक हिंसा है। हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाए तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग
४. आरम्भजा-जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा-जैसे । हुई? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित भोजन के पकाने में। यह निर्वाहात्मक हिंसा है।
नहीं है, उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं हुई है।३६ इस प्रकार हम देखते हैं
कि संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा हिंसा के कारण
अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन साहित्य में भी यह जैन आचार्यों ने हिंसा के कारण माने हैं- १. राग, २. द्वेष, धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'सावधानी ३. कषाय और ४. प्रमाद।
पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी-कभी कीट, पतंग
आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दबकर मर भी जाते हैं, लेकिन हिंसा के साधन
उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्मबन्ध भी नहीं बताया गया है, जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है, वे तीन हैं-मन, क्योंकि वह अन्तः में सर्वतोभावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने वचन और शरीर। व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों के के कारण निष्पाप है। जो विवेकवान्, अप्रमत्त साधक हृदय से निष्पाप द्वारा करते हैं।
है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो
जाने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है३८ लेकिन जो प्रमत्त क्या पूर्ण अहिंसक होना संभव है?
व्यक्ति है उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं वह जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है। मात्र यही नहीं वरन जो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त उनका भी हिंसक है क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है।९ इस प्रकार आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान् पाप रूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता।
आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में लिखते हैं कि बाहर में प्राणी मरे या जीये अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर में हिंसा निश्चित है। परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, संयताचारी है उसको बाहर से होने वाली हिंसा से कर्म-बन्ध नहीं है।" आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से मुक्त नियमपूर्वक आचारण करते हुए भी यदि प्राणाघात हो जावे तो वह हिंसा हिंसा नहीं है। निशीथ चूर्णि में भी कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है।४३
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक रहा है। जैन आचार्यों के
इस दृष्टिकोण के पीछे जो प्रमुख विचार है, वह यह है कि व्यवहारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और जीवन में सद्गुण के विकास की दृष्टि से जीवन को बनाए रखने का प्रयास ये दो ऐसी स्थितियां हैं जिनको साथ-साथ चलाना संभव नहीं होता है, अत: जैन विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से है।
इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है-जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी मारता नहीं है और वह [ अपने कर्मों के कारण ] बन्धन में नहीं पड़ता।४५
धम्मपद में भी कहा गया है 'वीततृष्ण व्यक्ति ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एव प्रजा-सहित राष्ट्र को मार कर भी निष्पाप होकर जीता है क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है'४६। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा और अहिंसा की विवेचना के मूल में प्रमाद या रागादि भाव ही प्रमुख तथ्य हैं।
सन्दर्भ : १. अहिंसाए भगवतीए-एसा सा भगवती अहिंसा।-प्रश्नव्याकरणसूत्र
२/१/२१-२२। जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णविंति एवं परुविंति-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधित्तव्वा; न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णाहिं पवेइए। -आचारांग, (सं० आत्मारामजी, जैन स्थानक लुधियाना, १९६४)
४/१२७॥ ३. एवं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसइ किंचनं। __ अहिंसा समय चेव एतांवतं वियाणिया। -सूत्रकृताङ्ग १/४/१०
तत्थिमं पढ़मं ठाणं महावीरेण देसियं।
अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूए सुसंजमो। -दशवैकालिक, ६/९। ५. धम्ममहिंसा समं नत्थि। भक्तपरिज्ञा ९।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४२॥ ७. सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्व सत्थाणं-भगवती आराधना,९० ८. धर्म समासतोऽहिंसा वर्णयन्ति तथागता -चतुःशतक ९. न तेन अरिया होति येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सव्वपाणानं, अरियो ति पवुच्चाति। -धम्मपद २७० १०. जयवेरं पसवति दुःख सेति पराजितो
उपसन्तो सुखं सेति जयपराजयो॥-धम्मपद २०१। ११. अंगुतरनिकाय, तीसरा निपात १५३ १२. गीता १०/५-७, १६/२, ७/१४ १३. एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते।
-महाभारत,शान्तिपर्व, गीताप्रेस, गोरखपुर, २४५/१९ १४. अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। यः स्यादहिंसासम्पृक्तः स धर्म इति निश्चयः।
-महाभारत,शान्तिपर्व १०९/१२।
१५. न हि अत्र युद्धः कर्तव्यो विधीयते। -गीता, शांकरभाष्य २/१८ । १६. गीता, शांकरभाष्य ६/३२ १७. दी भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ल्ड, पृष्ठ १२२ १८. भगवद्गीता-राधाकृष्णन्। -पृष्ठ ७४-७५ १९. Hidnu Ethics २०. सव्वे जीवा वि इच्छति जीविउं न मरिज्जिउं
तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं-दसवैकालिक ६/११ २१. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणेपियायए।
ण हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए।। उत्तरा ६/७ २२. जे लोगं अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति।
-आचारांग १३/३। २३. तुमंसि नाम तं चेव जं हन्तव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वति मन्नसि, तुमंसि नाम त चेव जं परियावेयव्वति मन्त्रसि।
-आचारांग १/५-४ २४. जीववहो अप्पवहो जीवदया अप्पणो दया होई। भक्तपरिज्ञा ९३ २५. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये।।
-सुत्तनिपात ३/३७/२७ २६. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृष्ठ १२५। २७. प्रश्न व्याकरणसूत्र, २/२१ । २८. हिंसाए पडिवक्खो होई अहिंसा -दशवैकालिक,नियुक्ति ६० २९. आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छयो एसो।
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ इयरो।। ओघनियुक्ति ७५४ ३०. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं चउच्छ्वासनिश्वासमथान्यदायुः।
प्राणा: दशैतेभगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा।।
- अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ७, पृष्ठ १२२८। ३१. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ४४
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________________ भगवान् महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त और उसकी उपादेयता 319 32. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा-तत्त्वार्थसूत्र 7/8 33. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड 7, पृष्ठ 1231 39. जे य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोग पडुच्च जे सत्ता। 34. उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च। वावज्जते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होई।।। न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनात्। जे वि न वावज्जंती, नियमा तेसिं पि हिंसओ सोउ। सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्। सावज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा।। पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।। -ओघनियुक्ति 752-53 / - महाभारत शान्तिपर्व 15/25-26 / 40. न य हिंसामेत्तेणं, सावज्जेणावि हिंसओ होई। -ओघनियुक्ति 758 35. अज्झत्थ विसोहीए जीवनिकाएहिं संथडे लोए। 41. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्सणिच्छिदा हिंसा। देसियमहिंसगंत्त जिणेहिंतिलोयदरिसीहिं।। -ओघ नियुक्ति, 747 / पयदस्स नत्थि बंधो हिसामेत्तेण समिदस्स।। -प्रवचनसार 217 36. समणोवागस्सणंभते। पुव्वामेव तस पाण समारम्भे पच्चखाए भवई, 42. युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावशमन्तरेणाऽपि। पुढवी समारम्भेण पच्चखाए भवइ, से य पुढवि खणमाणे अण्णयरं न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।। तसपाणं विहिंसेज्जा सेणं भंते तं वयं अतिचरित? नो इणढे समढे -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 45 नो खलु से तस अइवायाए आउट्ठई। -भगवती 7/1 43. सति पाणातिवाए अप्पमत्तो अवहगो भवति। 37. उच्चालियंमि पाए, ईरियासमियस्स संकमट्ठाए। एवं असति पाणातिवाए पम्मत्ताए वहगो भवति।। वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज। -निशीथचूर्णि 92 / न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिओ समए। 44. देखिए-दर्शन और चिन्तन, खण्ड 2, पृष्ठ 414 अणावज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा।। 45. यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। -ओघनियुक्ति 748-49 हत्वापि स इमाल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। -गीता 18/17 38. जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। ___46. मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये। सा होई निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स।। रटुं सानुचरं हन्त्वा अनिधो याति ब्राह्मणो। -धम्मपद 294 - ओघनियुक्ति 559 / भगवान् महावीर का अपरिग्रह-सिद्धान्त और उसकी उपादेयता संग्रहवृत्ति का उद्भव एवं विकास अपरिग्रह का प्रश्न सम्पत्ति के स्वामित्व से जुड़ा हुआ है और सम्पत्ति की अवधारणा का विकास मानव जाति के विकास का सहगामी है। मानव इस पृथ्वी पर कैसे और कब अस्तित्व में आया? यह प्रश्न आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक गूढ़ पहेली बना हुआ है। विकासवादी दार्शनिक मानव-सृष्टि को विकास की प्रक्रिया का ही एक अंग मानते हैं और अमीबा जैसे एक कोषीय प्राणी से प्राणियों की विभिन्न जातियों की विकास प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य की उत्पत्ति की व्याख्या करते विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ था क्योंकि उस युग में न तो सम्पत्ति ही थी और न उसके स्वामित्व का विचार ही था। मानव उदार प्रकृति की गोद में पलता और पोषित होता था। जैन परम्परा में इसे यौगलिक युग (अकर्म-युग) कहा जाता है। साम्यवादी विचारधारा की दृष्टि से यह प्रारम्भिक साम्यवाद(PrimitiveSocialism) की अवस्था थी। सामान्यतया इस युग में मानव की आकाक्षायें इतनी बढ़ी-चढ़ी नहीं थीं, और एक दृष्टि से वह सुखी और सन्तुष्ट था। किन्तु धीरे-धीरे एक ओर जनसंख्या बढ़ी तथा दूसरी ओर प्रकृति प्रक्रिया (कन्टीन्यूइंग प्रोसेस) बताता है और मानव जाति के अस्तित्व यहीं से श्रम की उद्भावना हुई। जैन-परम्परा के अनुसार ऐसी अवस्था को भी इस आरोह और अवरोह-क्रम के सन्दर्भ में ही विवेचित करता में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने मानव जाति को कृषि की शिक्षा है। फिर भी नृतत्वविज्ञान, विकासवादी दर्शन और जैन दर्शन इस दी। कृषि में जहाँ एक ओर मानव-श्रम लगने लगा वहीं दूसरी ओर सम्बन्ध में एक मत हैं कि मानव की वर्तमान सभ्यता का विकास उस श्रम के परिणाम स्वरूप उत्पन्न अन्न-सामग्री के संचयन और स्वामित्व उसके प्राकृतिक जीवन से हुआ है। एक समय था जबकि मनुष्य विशुद्ध का प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ। वस्तुतः कृषि से उत्पन्न सामग्री ऐसी रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता था और प्रकृति भी इतनी समृद्ध नहीं, जो वर्ष में हर समय सुलभ हो सके, केवल वर्षा पर आश्रित थी कि उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो कोई विशिष्ट वह कृषि नियत समय पर ही अपनी उपज दे पाती थी और इसलिए श्रम करना होता था और न संग्रह ही। अत: उस युग में परिग्रह का सम्पूर्ण वर्ष भर के लिये अन्न का संचयन आवश्यक था। जीवन-रक्षण