Book Title: Ahimsa Ek Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ३१५ में स्थित है वह सब योगियों में पर उत्कृष्ट माना जाता है"१६ निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं।२० वस्तुतः प्राणियों के महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा की प्रतिपादक मानते हैं उनका जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना कथन है "गीता की मुख्य शिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है-हिंसा बिना करता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययन क्रोध, आसक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें सत्व, रजस् सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते और तमस् गुणों के रूप में घृणा, क्रोध आदि की अवस्थाओं से ऊपर हुए कहा गया है कि 'भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन के प्रति उठने को कहती है फिर हिंसा कैसे हो सकती है। डा० राधाकृष्णन प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जानकर, भी गीता को अहिंसा की प्रतिपादक मानते हैं, वे लिखते हैं “कृष्ण उनकी कभी भी हिंसा न करें।२१ यह मैकेन्जी की भय पर अधिष्ठित अर्जुन को युद्ध करने का परामर्श देते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं अहिंसा की धारणा का सचोट उत्तर है। जैन आगम आचारांगसूत्र में है कि वे युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहे हैं। युद्ध तो एक ऐसा तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही अहिंसा सिद्धान्त की प्रस्तावना अवसर आ पड़ा है, जिसका उपयोग गुरु उस भावना की ओर संकेत की गई है। जो लोक (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह करने के लिए करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है।२२ इसी ग्रन्थ में आगे भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिये। यहाँ हिंसा या अहिंसा का प्रश्न पूर्ण-आत्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए भगवान् महावीर कहते नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न हैं—जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना है, जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक चाहता है वह तू ही है और जिसे तू परिताप देना चाहता है वह भी विकास या सत्व गुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान तू ही है।२३ भक्तपरिज्ञा से भी इसी कथन की पुष्टि होती है उसमें और वासना की उपज है। अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि लिखा है किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत: अपनी ही हत्या वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया है। गीता हमारे सम्मुख है और अन्य जीवों पर दया अपनी ही दया है।२४ जो आदर्श उपस्थित करती है, वह हिंसा का नहीं अपितु अहिंसा का भगवान बुद्ध ने भी अहिंसा के आधार के रूप में इसी 'आत्मवत् है। कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग और द्वेष के सर्वभूतेषु' की भावना को ग्रहण किया था। सुत्तनिपात में वे कहते बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति हैं कि जैसा मैं हूँ वैसे ही ये सब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है।१८ हैं वैसा ही मैं हूँ इस प्रकार अपने समान सब प्राणियों को समझकर इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता भी अहिंसा की समर्थक है। न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरों से कराये।२५ । मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेष-बुद्धि पूर्वक विवशता में करना गीता में भी अहिंसा की भावना के आधार के रूप में 'आत्मवत् पड़े ऐसी हिंसा का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है उससे यह सर्वभूतेषु' की उदात्त धारणा ही है। यदि हम गीता को अद्वैतवाद की नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है। अपवाद के रूप समर्थक माने तो अहिंसा के आधार की दृष्टि से जैन दर्शन और अद्वैतवाद में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैनागमों में यह अन्तर हो सकता है कि जहाँ जैन परम्परा में सभी आत्माओं में भी उपलब्ध हो जाता है। की तात्त्विक समानता के आधार पर अहिंसा की प्रतिष्ठा की गई है वहां अद्वैतवादी विचारणा में तात्त्विक अभेद के आधार पर अहिंसा अहिंसा का आधार की स्थापना की गई है। कोई भी सिद्धान्त हो, अहिंसा के उद्भव की अहिंसा की भावना के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ दृष्टि से महत्त्व की बात यही है कि अन्य जीवों के साथ समानता भ्रान्त-धारणाओं को प्रश्रय मिला है। अत: उन पर सम्यकरूपेण विचार या अभेद का वास्तविक संवेदन ही अहिंसा की भावना का मूल उद्गम कर लेना अवश्यक है। मैकेन्जी ने अपने 'हिन्दू एथिक्स' में इस भ्रान्त है।२६ जब व्यक्ति में इस संवेदनशीलता का सच्चे रूप में उदय हो विचारणा को प्रस्तुत किया है कि अहिंसा के प्रत्यय का निर्माण भय जाता है, तो हिंसा का विचार असम्भव हो जाता है। के आधार पर हुआ है। वे लिखते हैं- असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से देखते हैं और भय की यह धारणा ही अहिंसा जैनागमों में अहिंसा की व्यापकता का मूल है। लेकिन मैं समझता हूँ कोई भी प्रबुद्ध विचारक मैकेन्जी जैन विचारणा में अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है, इसका की इस धारणा से सहमत नहीं होगा। जैनागमों के आधार पर भी बोध हमें प्रश्नव्याकरणसूत्र से हो सकता है, जिसमें अहिंसा के इस धारणा का निराकरण किया जा सकता है। अहिंसा का मूलाधार निम्न साठ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं-२७ १. निर्वाण, २. निर्वृत्ति, जीवन के प्रति सम्मान एवं समत्वभावना है। समत्वभाव से सहानुभूति, ३. समाधि, ४. शान्ति, ५. कीर्ति, ६. कान्ति, ७. प्रेम ८. वैराग्य, समानुभूति एवं आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का ९. श्रुतांग, १०. तृप्ति, ११. दया, १२. विमुक्ति, १३. क्षान्ति, १४. विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्यक् आराधना, १५. महती, १६. बोधि, १७. बुद्धि, १८. धृति, सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है- १९. समृद्धि, २०. ऋद्धि, २१. वृद्धि, २२. स्थिति (धारक), सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अत: २३. पुष्टि (पोषक), २४. नन्द (आनन्द) २५. भद्रा, २६. विशुद्धि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6