Book Title: Agam ka Vyakhya Sahitya
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 7
________________ चतुर्थ खण्ड / १६४ जीतकल्प-भाष्य-प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में प्रायश्चित्त का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। प्रायश्चित्त की व्युत्पति इस प्रकार की है पावं छिदति जम्हा प्रायच्छित्तं ति भण्णेति तेणं-जिससे पाप का छेदन किया जाता है, वह प्रायश्चित्त कहा गया है। जीत, पागम, श्रुत, प्राज्ञा और धारणा इन पांच व्यवहारों का वर्णन किया गया है। भक्तपरिज्ञा, इंगिनी मरण, और पादपोपगमन इन तीन संल्लेखनामों का उल्लेख भी किया है। पंचकल्पभाष्य-इसमें पाँच प्रकार के प्राचार का वर्णन किया गया है। कल्प शब्द की व्याख्या भी प्राचार की गई है। पिण्ड भाष्य-इस भाष्य में साधुजीवन के प्राचार एवं विचार का कथन किया गया है। इसमें पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त और उसके महामंत्री चाणक्य का भी उल्लेख है। ओघ भाष्य-यह ३२२ गाथाओं में निबद्ध है। इसमें भी श्रमणचर्या का उल्लेख है। इसमें मालवा देश के सामाजिक जीवन को प्रस्तुत करने का उल्लेख है तथा शुभ, अशुभ तिथियों का भी विचार किया गया है। दशवकालिक भाष्य-इस भाष्य में मूलगुणों और उत्तरगुणों का उल्लेख किया गया है। प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रमाण की व्याख्या एवं जीवसिद्धि भी की गई है । उत्तराध्ययन भाष्य-यह भाष्य निर्ग्रन्थों के स्वरूप को प्रतिपादित करता है। पुलाक, वकूश, कूशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के भेद-प्रभेदों का भी कथन किया गया है । आवश्यकभाष्य-यह साधना तत्त्व को प्रतिपादित करनेवाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। क्योंकि इसमें चरणानुयोग, कथानुयोग और द्रव्यानुयोग के माध्यम से साधना के विषय को प्रतिपादित किया गया है। विशेषावश्यक भाष्य-आवश्यक सूत्र पर लिखा गया यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञान की मीमांसा करनेवाला विश्वकोष है। इसमें ज्ञानवाद, गणधरवाद और निह्नववाद का दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त इसमें सामायिक, निक्षेप का स्वरूप तथा नयों का स्वरूप भेद-प्रभेद एवं नय-योजना का कथन भी विस्तार से हुआ है।। इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं जिनमें (i) स्वोपज्ञवृति (ii) कोट्याचार्य की विस्तृत टीका (iii) प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्रकृत टीका। यह भाष्य समस्त प्रागमों और उनकी टीकामों में महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि इस भाष्य के प्रत्येक अध्ययन-विषय की गम्भीरता को प्रतिपादित करते हैं। चणि-परिचय चूणि ग्रन्थ गद्य एवं पद्य दोनों ही शैलियों में लिखे गए हैं । इन चूर्णि-ग्रन्थों की भाषा मात्र प्राकृत ही नहीं है, अपितु संस्कृत भी है, जो अत्यन्त सरल एवं सुबोध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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