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आगम का व्याख्या साहित्य
. डॉ. उदयचन्द्र जैन
आगम को परम्परा
__ भारत की मूल परंपरा में प्रागमों का समय-समय पर प्रणयन हुआ। वैदिक परम्परा में वेद, उपनिषद् ब्राह्मणग्रन्थ, मूल स्मृतियां प्रादि ग्रन्थ आते हैं। बुद्ध के वचनों का नाम त्रिपिटक पड़ा और महावीर के वचनों का नाम पागम पड़ा। ये तीनों परम्परायें प्राचीन हैं। इनकी समग्र-सामग्री प्राज भी उसी रूप में सुरक्षित है।
आगमयुग
आगमयुग कब से प्रारम्भ हुप्रा यह कहा नहीं जा सकता; परन्तु इतना स्पष्ट है कि जो तीथंकरों की परम्परा है, वही आगमयुग की परम्परा है। क्योंकि प्रागमों में जो लिखित रूप आया, वह तीर्थंकर परम्परा से ही पाया है। तीथंकरों की वाणी सदैव एक-सी प्रवाहित होती है, उसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं होता है। फिर भी पागमयुग का प्रारम्भ अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग छह सौ वर्ष बाद से लेकर एक हजार वर्ष तक माना जा सकता है । और आज भी वैसी की वैसी परम्परा वर्तमान युग में भी प्रचलित है।
आगम के मूल प्रणेता
अर्थ रूप में प्रागमों के प्रणेता तीर्थकर हैं और शब्द रूप में ग्रहण कर सूत्ररूप में निबद्ध करनेवाले गणधर, तथा सूत्र-शैली को कंठस्थ कर उसे लिपिबद्ध करने का श्रेय प्राचार्यपरम्परा को दिया जाता है।
आगमवाचना
(i) पाटलीपुत्रवाचना-यह वाचना देवाद्धि गणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में (महावीर निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात्) हुई । इसमें ग्यारह आगमों का संकलन हुआ ।
(ii) मथुरावाचना–महावीरनिर्वाण के ८२४-८४० वर्ष के मध्य प्रार्य स्कंदिल की अध्यक्षता में की गई।
(iii) बलभीनगर की वाचना-यह वाचना महावीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद हई। इस वाचना में ४५ पागम ग्रन्थ लिखितरूप में पाए।
प्रागमों की भाषा
(i) अर्धमागधी प्रागमों की भाषा अर्धमागधी भाषा है। यह मथुरा, मगध, कौशल, काशी आदि अनेक देशों में व्याप्त थी।
(ii) शौरसेनी आगमों की भाषा शूरसेन, मध्यक्षेत्र तक फैली हुई थी।
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उज्जैन में न्याय मूर्ति श्री मुरारी लाल तिवारी महासती जी को उनके ६४ वें जन्म दिवस के अवसर पर प्रवचन शिरोमणि की उपाधि भेंट करते हुए। सं. २०४२
गीता भवन इन्दौर के श्री एस. एन. व्यास 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' महासती जी को भेंट करते हुए
सुन्दर
వ యోప చేసి మోసిన
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६१
विषय-प्रतिपादन-प्रस्तुत प्रागमों में धर्म, दर्शन, संस्कृति, गणित, ज्योतिष, खगोल, भूगोल, इतिहास आदि विषयों का समावेश है। इसलिए ये सभी आगम आध्यात्मिक, दार्शनिक, मांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं ।
आगम का व्याख्या सहित्य
(1) नियुक्ति (ii) भाष्य, (iii) चूणि, (iv) टीका (v) टब्बा (vi) अनुवाद ।
(i) नियुक्ति--आगमों पर सर्वप्रथम व्याख्या नियुक्तिरूप में प्रस्तुत की गई थी "णिज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ णिज्जत्ती।" अर्थात् सूत्र में जो अर्थ निबद्ध हो, वह नियुक्ति है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने नियुक्ति की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है:--"निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्ति:--परिपाट्या योजनम् ।"
नियुक्ति प्रागम गाथानों पर संक्षिप्त विवरण है। नियुक्तियों का समय वि. सं. ४००-६०० तक माना गया है । अभी तक समय निर्णीत नहीं है।
नियुक्तियों में गूढभावों को सरलतम शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रसंगवश धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज, इतिहास आदि विविध विषयों का समावेश हो गया है। कुछ प्रसिद्ध नियुक्तियाँ
(१) आवश्यक (२) दशवैकालिक (३) उत्तराध्ययन, (४) आचारांग (५) सूत्रकृतांग (६) दशाश्रुतस्कंध (७) बृहत्कल्प (८) व्यवहार (९) अोध (१०) पिण्ड (११) ऋषिभषित (१२) निशीथ, (१३) सूर्य (१४) संसक्त (१५) गोविंद (१६) और आराधना । नियुक्तियों का परिचय
(१) आवश्यक नियुक्ति प्राचार्य भद्रबाहु ने ज्ञानवाद, गणधरवाद और निह्नववाद का संक्षेप कथन कर सामायिक के स्वरूप पर गम्भीर दृष्टि डाली है। इसमें शिल्प, लेखन एवं गणित आदि के विषयों का परिचय, व्यवहार, नीति एवं युद्धवर्णन, चिकित्सा, अर्थशास्त्र एवं अनेक उत्सवों का समावेश हो गया है। वंदन, ध्यान, प्रतिक्रमण का निक्षेप पद्धति से विवेचन किया है। प्रसंगवश सुन्दर सूक्तियाँ भी आगई हैं। जैसे
"हयं णाणं कियाहीणं"
"न हु एगचक्केण रहो पयाइ।" (२) दशवकालिक नियुक्ति -इस नियुक्ति ग्रन्थ में आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी और निवेदनी इन चार कथाओं के माध्यम से अहिंसा, संयम और तप का सूक्ष्म विवेचन किया है। श्रमणचर्या का सूक्ष्मता से विवेचन हुअा है। यथाप्रसंग धन-धान्य, रत्न और अनेकविध पशुओं का वर्णन किया है। धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोणों का भी सूक्ष्मता से विवेचन हुआ है।
(३) उत्तराध्ययन नियुक्ति-इसमें उत्तर, अध्ययन, श्रुत, स्कंध की व्याख्या की गई है। गति और प्राकीर्ण का दृष्टांत देकर शिष्यों की विभिन्न दशा का वर्णन किया है। इसमें शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। इस नियुक्ति में गंधार श्रावक, तोसलि पुत्र, स्थूलभद्र, कालक, स्कंदलपुत्र और करकंडू आदि का जीवन संकेत है।
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | १६२
आचारांग नियुक्ति
"अंगाणं कि सारो? आयारो।" आचारांग समस्त अंगों का सार है।
इसके प्रारम्भ में प्राचार क्या है ? इस गम्भीर विषय पर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। प्राचारांग अंगों में प्रथम अंग क्यों है ? और इसका परिमाण क्या है ? लोक, विजय, कर्म, सम्यक्त्व, विमोक्ष, श्रुत, उपधान और परिज्ञा आदि शब्दों की सुन्दर व्याख्या की है।
सूत्रकृतांग-नियुक्ति-इसके प्रारम्भ में सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इसके उपरांत गाथा, षोडश, विभक्ति, समाधि, प्राहार और प्रत्याख्यान आदि शब्दों की व्याख्या करके ३६३ मतों के सिद्धांतों की सुन्दर व्याख्या की है। क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक इन चार मुख्य वादों का सुन्दर शैली से विवेचन किया है।
दशाथ तस्कंध-नियुक्ति-इसमें समाधि, आशातना और शबल को व्याख्या तथा गणी और उसकी सम्पदाओं का उल्लेख हुआ है । चित्र, उपासक, प्रतिभा, पर्युषण का भी कथन है। इसमें पर्दूषण के पर्युषण, पज्जूसण, पर्युपशमना, परिवसना, वर्षावास, स्थापना और ज्येष्ठग्रह पर्यायवाची कहे गए हैं।
बृहत्कल्प-इस सूत्र ग्रन्थ में मूल सूत्र के साथ निर्यक्तियों का सम्मिश्रण हो गया है। इसमें ग्राम क्या है ? नगर क्या है ? पत्तन क्या है ? द्रोणमुख क्या है ? निगम क्या है ? और राजधानी क्या है ? आदि कई विषयों का रोचक वर्णन हा है। यथाप्रसंग में लोककथानों का भी उल्लेख है।
इसके अतिरिक्त श्रमणचर्या के माहार-विहार एवं स्थान प्रादि का वर्णन है।
व्यवहारनियुक्ति-कल्प और व्यवहार सूत्र की नियुक्ति की परस्पर शैली, भाव और भाषा में समानता है। इस नियुक्ति में साधना-पक्ष और सिद्धान्तपक्ष के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डाला गया है ।
निशीथनियुक्ति-सूत्रगत शब्दों की व्याख्या इस ग्रन्थ की विशेषता है ।
पिण्डनियुक्ति-पिण्ड का अर्थ है-भोजन । इसमें प्राहार-शुद्धि एवं आहार-विधि की व्याख्या की गई है। इस पर मलयगिरि ने वृहद्वृत्ति और प्राचार्य वीर ने लघुवृत्ति लिखी है।
ओघनियुक्ति-पोघ शब्द की व्याख्या करके प्राचार्य भद्रबाह ने श्रमणचर्या की सूक्ष्म व्याख्या की है। प्रतिलेखन, उपधि, प्रतिसेवना, पालोचना, विशुद्धि और प्रोध की व्याख्या भी की गई है।
ओघ का अर्थ है-सामान्य या साधारण । अर्थात् जिस नियुक्ति में श्रमणचर्या के सामान्य भाव एवं क्रिया को प्रतिपादित किया गया है।
संसक्तनियुक्ति यह प्राचार्य भद्रबाहु की लघुवृत्ति है ।
गोविंदनियुक्ति-इस नियुक्ति को दर्शन-प्रभावक-शास्त्र भी कहा गया है, क्योंकि इस ग्रन्थ में दर्शनशास्त्र की दृष्टि से जीवादि तत्त्वों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६३
आराधनानियुक्ति-अाराधना पताका के नाम से भी इस ग्रंथ को जाना जाता है । वट्टकेर के मूलाचार में इसका उल्लेख है ।
ऋषिभाषिता-प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इस ग्रन्थ को ऋषि-भाषिता कहा गया है। इसमें चवालीस प्रत्येकबुद्धों के जीवन को प्रस्तुत किया गया है ।
सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राचार्य भद्रबाहु ने सूर्यप्रज्ञप्ति ग्रन्थ पर नियुक्ति लिखी है। इसमें ज्योतिष, गणित आदि के विषयों का विवेचन हुअा है ।
भाष्य-आगमग्रन्थों पर प्राकृत में भाष्य भी लिखे गए हैं। भाष्य-शैली पद्यात्मक है। संघदास गणि, जिनभद्र क्षमाश्रमण भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। प्रागमों पर भाष्य विक्रम सं. की सातवीं शती में लिखे गए हैं।
बृहतकल्पभाष्य, व्यवहार भाष्य, निशीथभाष्य विशेषावाश्यक भाष्य, पंचकल्प, जीतकल्प और लघुभाष्य ये सात भाष्य हैं। इनमें बृहतकल्प, व्यवहार, और निशीथ ये तीन भाष्य विशालकाय हैं।
भाष्यग्रन्थों का परिचय
बृहत्कल्पभाष्य-इस भाष्य में साधु-जीवन के प्राचार-विचार पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है । विचारभूमि, विहारभूमि और आर्यक्षेत्र की व्याख्या मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत की गई है।
“विणासधम्मीसु हि किं ममत्तं" विनाश---शील वस्तुओं पर ममत्व क्यों ?
"जं इच्छसि अप्पणत्तो, जं च ण इच्छसि अप्पणत्तो--जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करो।"
ऐसे कई उपदेशपूर्ण पदों का कथन इस ग्रन्थ की विशेषता है ।
व्यवहारभाष्य-साधु-साध्वियों के प्राचार, विचार, तप, संयम, साधना, प्रायश्चित्त एवं इनकी विभिन्न चर्वानों का उल्लेख इस ग्रन्थ में विस्तार से हुआ है। इस पर मलयगिरि ने विवरणिका लिखी है।
___ इस व्यवहारभाष्य में रक्षित, आर्य कालक, सातवाहन, प्रद्योत और चाणक्य इनका उल्लेख भी पाया है।
निशीथभाष्य-"जइ सव्वसो अभावो रागादीणं हवेज्ज णिद्दोसो।" यदि साधक के जीवन में किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है, तो वह साधक निर्दोष साधक है । इसी उद्देश्य को सामने रखकर भाष्यकार ने साधक का परिचय दिया है। इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन, ज्योतिष एवं विभिन्न भाषाओं का बोध इस विशालकाय ग्रन्थ के माध्यम से हो जाता है।
निग्रंथ, निग्रंथी, संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य आदि का विवेचन भी भाष्यकार ने किया है। प्रसंगवश विभिन्न लोक-कथाएं, समाज-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था राजनीति-व्यवस्था का भी समावेश हो गया है।
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चतुर्थ खण्ड / १६४
जीतकल्प-भाष्य-प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में प्रायश्चित्त का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। प्रायश्चित्त की व्युत्पति इस प्रकार की है
पावं छिदति जम्हा प्रायच्छित्तं ति भण्णेति तेणं-जिससे पाप का छेदन किया जाता है, वह प्रायश्चित्त कहा गया है।
जीत, पागम, श्रुत, प्राज्ञा और धारणा इन पांच व्यवहारों का वर्णन किया गया है। भक्तपरिज्ञा, इंगिनी मरण, और पादपोपगमन इन तीन संल्लेखनामों का उल्लेख भी किया है।
पंचकल्पभाष्य-इसमें पाँच प्रकार के प्राचार का वर्णन किया गया है। कल्प शब्द की व्याख्या भी प्राचार की गई है।
पिण्ड भाष्य-इस भाष्य में साधुजीवन के प्राचार एवं विचार का कथन किया गया है। इसमें पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त और उसके महामंत्री चाणक्य का भी उल्लेख है।
ओघ भाष्य-यह ३२२ गाथाओं में निबद्ध है। इसमें भी श्रमणचर्या का उल्लेख है। इसमें मालवा देश के सामाजिक जीवन को प्रस्तुत करने का उल्लेख है तथा शुभ, अशुभ तिथियों का भी विचार किया गया है।
दशवकालिक भाष्य-इस भाष्य में मूलगुणों और उत्तरगुणों का उल्लेख किया गया है। प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रमाण की व्याख्या एवं जीवसिद्धि भी की गई है ।
उत्तराध्ययन भाष्य-यह भाष्य निर्ग्रन्थों के स्वरूप को प्रतिपादित करता है। पुलाक, वकूश, कूशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के भेद-प्रभेदों का भी कथन किया गया है ।
आवश्यकभाष्य-यह साधना तत्त्व को प्रतिपादित करनेवाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। क्योंकि इसमें चरणानुयोग, कथानुयोग और द्रव्यानुयोग के माध्यम से साधना के विषय को प्रतिपादित किया गया है।
विशेषावश्यक भाष्य-आवश्यक सूत्र पर लिखा गया यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञान की मीमांसा करनेवाला विश्वकोष है। इसमें ज्ञानवाद, गणधरवाद और निह्नववाद का दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त इसमें सामायिक, निक्षेप का स्वरूप तथा नयों का स्वरूप भेद-प्रभेद एवं नय-योजना का कथन भी विस्तार से हुआ है।।
इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं जिनमें (i) स्वोपज्ञवृति (ii) कोट्याचार्य की विस्तृत टीका (iii) प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्रकृत टीका।
यह भाष्य समस्त प्रागमों और उनकी टीकामों में महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि इस भाष्य के प्रत्येक अध्ययन-विषय की गम्भीरता को प्रतिपादित करते हैं।
चणि-परिचय
चूणि ग्रन्थ गद्य एवं पद्य दोनों ही शैलियों में लिखे गए हैं । इन चूर्णि-ग्रन्थों की भाषा मात्र प्राकृत ही नहीं है, अपितु संस्कृत भी है, जो अत्यन्त सरल एवं सुबोध है।
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६५
चूणियों की रचना सातवीं-पाठवीं शताब्दी के लगभग की गई है। चणिकारों में सिद्धसेनसूरि, प्रलम्बसूरि और अगस्त्यसिंह-सूरि प्रमुख हैं। प्रसिद्ध चूणियाँ
(१) आवश्यक (२) प्राचारांग (३) सूत्रकृतांग (४) दशवकालिक (५) उत्तराध्ययन (६) नन्दी (७) अनुयोगद्वार (८) व्याख्या-प्रज्ञप्ति (९) जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (१०) जीवाभिगम (११) निशीथ (१२) महानिशीथ (१३) बृहत्कल्प (१४) व्यवहार (१५) दशाश्रुतस्कंध (१६) जीवकल्प (१७) पंचकल्प (१८) प्रोघ ।
इन चणियों में धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज और इतिहास आदि की विपुल सामग्री उपलब्ध है।
आवश्यकचणि-विषय-विवेचन की दृष्टि से अावश्यक चणि का अत्यन्त महत्त्व है। इसकी भाषा प्रांजल है। इसमें संवाद और कथानकों की भरमार है। इसमें ऋषभदेव की सभी घटनाओं का क्रम से वर्णन है। विभिन्न कलानों शिल्पतत्त्व-कुम्भकार, चित्रकार, वस्त्रकार, कर्मकार और काश्यप का वर्णन, ब्राह्मी की लेखनकला, सुन्दरी की गणितकला और भरतादि की राजनीति का सुन्दर विवेचन हुआ है।
महावीर का जन्मोत्सव, दीक्षा, साधना, उपसर्ग एवं कैवल्य आदि का वर्णन, पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों का कथन, मंखलिपुत्र गोशालक, लाढ देश की वज्र एवं शुभ्रभूमि जमालि, पार्यरक्षित, तिष्यगुप्त, वज्रस्वामी और वज्रसेन के कथानक तथा विविध राज्यों का वर्णन यथाप्रसंग हो गया है।
यह चूणि लोक-कथा एवं ऐतिहासिक तथ्यों से पूर्ण है । ___ आचारांगचूणि-आचारांग की चूणि में श्रमण के प्राचार-विचार के साथ लोक-कथाएँ भी सरल एवं सुबोध ढंग से प्रस्तुत हुई हैं
___ "एगम्मि गामे एक्को कोडुबिनो धणमंतो बहुपुत्तो य' प्रादि बहुत ही सरल भाषा में कथानक प्रस्तुत किए गए हैं।
सूत्रकृतांगणि-इसमें दार्शनिक तत्त्व एवं लोक-कथाओं की बहुलता है । आर्य एवं अनार्य देश की प्रसिद्ध कथाओं का भी उल्लेख है। अनार्य देश में रहनेवाले आर्द्र कुमार की अभयकुमार के साथ मित्रता का भी उल्लेख है ।
दशवकालिकणि-इस चणि में लोक-कथाओं और लोक-परम्पराओं का उल्लेख है। जिनदास महत्तर ने इसमें श्रमण के प्राचार-विचार की व्याख्या प्रस्तुत की है। प्राकृत के शब्दों की व्युत्पति पर्याप्त रूप से की गई है। उदाहरण के लिए–'दुम', रुक्ख, पादप की व्याख्या देखिए
"दुमा नाम भूमीए, रुत्ति पुहवी, खत्ति आगास, तेसु दोसु वि जहा ठिया, तेणं रुक्खा पादेहि पिवन्तीति पादपा । पादा मूलं भण्णंति" कहीं-कहीं पर संवाद-शैली भी है, जो पढ़ने में एकांकी एवं नाटकों जैसा आनंद देती है।
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किं मच्छे मारसि ।
न सबके मिपातु ।
अरे ! तुम मज्जं पियसि ।
चतुर्थखण्ड / १६६
उत्तराध्ययनचूर्णि - जिनदास महत्तर ने इस चूर्ण में संस्कृत और प्राकृत को मिश्रित कर दिया है । इसमें लोककथानों की बहुलता है । प्रसंगवश तत्त्वचर्चा भी की गई है ।
व्युत्पत्तियों के लिए यह चूर्णि प्रसिद्ध है। काश्यप शब्द की एक व्युत्पत्ति द्रष्टव्य है"काश -- उच्छु, तस्य विकारः, कास्यः रसः स यस्य पानं, काश्यप —- उसमसामी, तस्य जोगा जे जाता ते कासवा, वद्धमाणो सामी कासवो"
नंदिचूर्ण- - इस चूर्ण में पांच ज्ञानों का वर्णन है । इस चूर्ण में माथुरीवाचना तथा प्राचार्य स्कंदिल के द्वारा श्रमण संघ को दी गई शिक्षा का उल्लेख मिलता है । इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री और लोक कथाओं की बहुलता है ।
अनुयोगद्वारचूर्णि -- इसमें चार अनुयोग और उनमें प्रतिपाद्य विषय का विवेचन है । भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है। इसमें विभिन्न सभानों, रथ, यान आदि का वर्णन है ।
व्याख्याप्रज्ञप्तिणि व्याख्याप्रज्ञप्ति का दूसरा नाम भगवतीसूत्र है । इसमें मात्र शब्दों की व्युत्पत्ति ही की गई है ।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिणि जंबूद्वीप के क्षेत्र, विस्तार का सांगोपांग वैज्ञानिक एवं गणित की दृष्टि से इस चूर्ण में विवेचन किया गया है ।
जीवाभिगमचूर्ण- - इस चूर्ण में जीव और अजीव की व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए इनके भेदप्रभेदों का वर्णन किया है। इसमें गौतम गणधर द्वारा महावीर से जीव आदि तत्त्वों के विषय में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर है । इस पर मलयगिरि ने टीका और हरिभद्रसूरि ने लघुवृत्ति लिखी है ।
वशा तस्कंध चूर्ण - भद्रबाहु ने इस चूर्ण में प्राचार्य कालक की कथा सातवाहन की कथा एवं सिद्धसेन तथा गोशालक का भी उल्लेख किया है। कई श्रमणों की तपश्चर्या का भी इसमें उल्लेख है ।
ओघचूण- इसमें प्रोघ की व्याख्या प्रस्तुत करके साधु जीवन का उल्लेख किया है । निशीथग- प्राकृत भाष्य पर जो व्याख्या प्रस्तुत की गई, वह निशीथ चूर्णि कहलाई । चूर्णिकार ने कहा है
I
"goवायरिय कथं चिय अहं पि तं चेव उ विसेसा"
इसमें मधुर और सुवाच्य शैली में विशेष व्याख्या प्राकृत में ही की गई है । और अल्प मात्र ही संस्कृत में व्याख्या प्रस्तुत की गई है ।
जिनदास महत्तर ने बड़ी गंभीरता से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की है, सुन्दर वार्तालाप द्वारा इस चूर्ण को अधिक रोचक बनाया है:
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आगम का व्याख्यासाहित्य / १६७
किं ण गतासि भिक्खाए ?
अज्ज ! खमणं मे ।
किं णिमित्तं ?
मोह - तिगिच्छं करेमि ।
अहं पि करेमि ।
इसमें प्रकृतिचित्रण, सिंध- प्रदेश, मालवप्रदेश, निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक, प्राजीवक, चार अनुयोग मंत्रविद्या प्रादि का उल्लेख है। तरंगवती, मलयवती, धूर्ताख्यान और वसुदेवाचरित्र आदि ग्रंथों का भी उल्लेख है ।
महानिशीथ चूर्णि - इस ग्रंथ की अभी तक प्राप्ति नहीं हो सकी है। पर इसका अनुसंधान हरिभद्रसूरि ने किया था ।
बृहत् कल्पचूणि -- इस चूर्णि को श्रमणों के जीवन को प्रतिपादित करनेवाला श्राचारशास्त्र कहा जा सकता है ।
व्यवहारचूर्णि - यह चूर्णि भी श्रमणचर्या को प्रस्तुत करती है ।
जीतकल्प - जिनभद्र क्षमाश्रमण ने इसमें साधुश्रों के पांच व्यवहारों, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख कर विस्तार से वर्णन किया है।
पंचकल्प - इसमें पाँच प्रकार के कल्पों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है । संघदास गणि ने इस पर चूर्णि लिखकर प्राचार - शास्त्र की सम्यग् व्याख्या की है ।
टीका - परिचय
निर्युक्तियों भाष्यों, चूर्णियों के बाद श्रागमों पर टीकाएं लिखी गईं। टीकाएं संस्कृत में ही लिखी गईं। निर्युक्ति भाष्य, चूणि, टीका, विवृत्ति, वृत्ति, विवरण, विवेचना, श्रवचूरि, श्रवचूर्णि, दीपिका, व्याख्या, पञ्जिका, विभाषा श्रौर छाया को टीका ही कहा गया है ।
टीकाओं में लोककला को समझाने का प्रारंभ भी हुप्रा । परन्तु टीकाकारों ने श्रागमों पर सैद्धांतिक विवेचन के साथ दार्शनिक विवेचन भी विस्तृतरूप से किया है ।
प्रसिद्ध टीकाएँ और उनके टीकाकार
टीकाकारों में आचार्य हरिभद्रसूरि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । क्योंकि इन्होंने राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, दशवेकालिक, आवश्यक, नंदी, अनुयोगद्वार आदि सूत्र ग्रंथों पर संस्कृत में सर्वप्रथम टीकाएं लिखी थीं ।
इसके बाद आचार्य शीलांक ने आचारांग, सूत्रकृतांग पर दार्शनिक दृष्टि से टीका
प्रस्तुत की।
शांतिसुर ने उत्तराध्ययन पर 'पाइय टीका' लिखी है इस पर संस्कृत टीका भी लिखी गई है । मलधारी हेमचंद्र और कोट्याचार्य ने विशेषावश्यक पर टीका लिखी ।
धम्मो दीयो
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १६८
मलयगिरि ने राजप्रश्नोय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति आदि उपांग ग्रंथों पर टोकाएं लिखी हैं। आवश्यक, पिण्डनियुक्ति, अोधनियुक्ति, नंदीसूत्र, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प आदि पर भी टीकाएं लिखी हैं।
अभयदेव, देवसूरि, सुमतिसूरि आदि कई प्राचार्यों ने आगमों पर टीकाएं लिखीं। प्रागमों की टीकाओं का संक्षिप्त परिचय:अंग-आगम
टीकाकार १. प्राचारांग
प्राचार्यशीलांक, जिनहंस, २. सूत्रकृतांग
" हर्षकुल ३. स्थानांग
अभयदेवसूरि, नागर्षि ४. समवायांग ५. भगवतीसूत्र ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशांग ८. अंतकृद्दशांग ९. अनुत्तरोपपातिकदशांग १०. प्रश्नव्याकरण
ज्ञानविमल ११. विपाकसूत्र
प्रद्युम्नसूरि उपांग-आगम
टीकाकार १. प्रौपपातिक
अभयदेवसूरि २. राजप्रश्नीय
हरिभद्र, मलयगिरि, देवसूरि ३. जीवाभिगम
मलयगिरि ४. प्रज्ञापना
, हरिभद्र, कुलमंडल ५. सूर्यप्रज्ञप्ति ६ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति
शांतिचंद्र, ब्रह्मर्षि ७. चंद्रप्रज्ञप्ति
मलयगिरि ८. कल्पिका
चंद्रसूरि, लाभश्री ९. कल्पावतंसिका १०. पुष्पिका ११. पुष्पचूलिका १२. वृष्णिदशा मूलसूत्र
टीकाकार १. दशवकालिक
हरिभद्र, समयसुन्दरगणि, तिलकाचार्य, सुमति
सूरि, अपराजितसूरि, विनयहंस २. उत्तराध्ययन
वादिवेतालसूरि, नेमिचंद्र, कमलसंयम, लक्ष्मीवल्लभ, भावविजय
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________________ आगम का व्याख्यासाहित्य | 169 3. आवश्यक हरिभद्र, मलयगिरि, तिलकाचार्य, कोट्याचार्य, नमि साधु, माणिक्यशेखर 4. पिण्डनियुक्ति मलयगिरि, वीराचार्य अथवा अोधनियुक्ति मलयगिरि, द्रोणाचार्य चूलिका टीकाकार 1. नन्दी हरिभद्र, मलयगिरि 2. अनुयोगद्वार हरिभद्र, मलधारी हेमचन्द्र छेदसूत्र टीकाकार 1. निशीथ प्रद्युम्नसूरि 2. महानिशीथ 3. व्यवहार मलयगिरि 4. दशाश्रतस्कंध ब्रह्मर्षि 5. बृहत्कल्प मलयगिरि, क्षेमकीति सूरि 6. पंचकल्प प्रकीर्णक टीकाकार 1. चतुःशरण गुणरत्नसूरि 2. पातुर-प्रत्याख्यान 3. महाप्रत्याख्यान 4. भक्त-परिज्ञा गुणरत्न 5. तंदुलवैचारिक विजयविमल 6. संस्तारक गुणरत्न गच्छाचार विजयविमल 8. गणिविद्या 9. देवेन्द्रस्तव 10. मरण-समाधि टब्बा-परिचय-टीकामों के बाद टब्बा व्याख्या के लिखने की प्रवृत्ति सामने आई / टब्बा प्रागमों पर लिखी गई संक्षिप्त टीका है। राजस्थानी और गुजराती में जो व्याख्याएं लिखी गई वे टब्बा कहलाई। टब्बाकारों में पार्श्वचंद और धर्मसिंह जी महाराज का नाम उल्लेखनीय है / अनुवाद-आगमों पर जो भाषांतर लिखे गए, उन्हें अनुवाद कहा गया। अनुवादों में मुख्य तीन भाषाएं पाती हैं (1) हिंदी-आत्माराम, जवाहरलाल, घासीलाल, हस्तीमल, सौभाग्यमल, अमरचंद (2) अंग्रेजी-हरमन जैकीवी, अभ्यंकर (3) गुजराती- बेचरदास, जीवाभाई पटेल, दलसुख मालवणिया, सौभाग्यमुनि / आगमयुग की इस व्याख्यापरक परम्परा का मूल्यांकन होना अति आवश्यक है। -पिऊ कुज, 3 अरविंद नगर, उदयपुर (राज.) 313001 धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। www.jainelibrarvorg