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आगम का व्याख्या साहित्य
. डॉ. उदयचन्द्र जैन
आगम को परम्परा
__ भारत की मूल परंपरा में प्रागमों का समय-समय पर प्रणयन हुआ। वैदिक परम्परा में वेद, उपनिषद् ब्राह्मणग्रन्थ, मूल स्मृतियां प्रादि ग्रन्थ आते हैं। बुद्ध के वचनों का नाम त्रिपिटक पड़ा और महावीर के वचनों का नाम पागम पड़ा। ये तीनों परम्परायें प्राचीन हैं। इनकी समग्र-सामग्री प्राज भी उसी रूप में सुरक्षित है।
आगमयुग
आगमयुग कब से प्रारम्भ हुप्रा यह कहा नहीं जा सकता; परन्तु इतना स्पष्ट है कि जो तीथंकरों की परम्परा है, वही आगमयुग की परम्परा है। क्योंकि प्रागमों में जो लिखित रूप आया, वह तीर्थंकर परम्परा से ही पाया है। तीथंकरों की वाणी सदैव एक-सी प्रवाहित होती है, उसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं होता है। फिर भी पागमयुग का प्रारम्भ अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग छह सौ वर्ष बाद से लेकर एक हजार वर्ष तक माना जा सकता है । और आज भी वैसी की वैसी परम्परा वर्तमान युग में भी प्रचलित है।
आगम के मूल प्रणेता
अर्थ रूप में प्रागमों के प्रणेता तीर्थकर हैं और शब्द रूप में ग्रहण कर सूत्ररूप में निबद्ध करनेवाले गणधर, तथा सूत्र-शैली को कंठस्थ कर उसे लिपिबद्ध करने का श्रेय प्राचार्यपरम्परा को दिया जाता है।
आगमवाचना
(i) पाटलीपुत्रवाचना-यह वाचना देवाद्धि गणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में (महावीर निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात्) हुई । इसमें ग्यारह आगमों का संकलन हुआ ।
(ii) मथुरावाचना–महावीरनिर्वाण के ८२४-८४० वर्ष के मध्य प्रार्य स्कंदिल की अध्यक्षता में की गई।
(iii) बलभीनगर की वाचना-यह वाचना महावीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद हई। इस वाचना में ४५ पागम ग्रन्थ लिखितरूप में पाए।
प्रागमों की भाषा
(i) अर्धमागधी प्रागमों की भाषा अर्धमागधी भाषा है। यह मथुरा, मगध, कौशल, काशी आदि अनेक देशों में व्याप्त थी।
(ii) शौरसेनी आगमों की भाषा शूरसेन, मध्यक्षेत्र तक फैली हुई थी।
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