Book Title: Agam ka Adhyayan kyo Author(s): Mainasundariji Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 2
________________ 180 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्का रूपी फूल को चतुर्विध संघ मस्तक पर चढ़ाकर भव सागर से किनारा करते हैं। उनके निर्दोष एवं राग-द्वेष विवर्जित बचन जन-जन के लिए महाप्रभावक होते हैं। आंगमों को पढ़ने व पढ़ाने के पीछे बहुत बड़ा उपकार व शासन की प्रभावना निहित है। जैसा कि स्थानांग सूत्र के पानवें स्थान में शास्त्र पढ़ाने एवं पढ़ने के पाँच-पाँच कारण बताए हैं। तंजहा-"संगहठ्ठयाए. उवग्गहणट्टयाए, निज्जरणयाए, सुत्ते वा मे पज्जवयाए भविस्सइ. सुत्तस्स वा आवोच्छित्तिनयट्ठयाए। 1. संगहठ्ठयाए. आगग ज्ञान सिखाने के पीछे पांच कारणों में प्रथम कारण। है- संग्रह के लिए गुरु शिष्य को आगम पढ़ाता है। मेरा शिष्य ज्ञान का भली भांति संग्रह कर सके। पढ़ाते समय गुरु के हृदय में यह पवित्र भावना रहती है कि मेरे शिष्य के पास अधिक से अधिक ज्ञान का खजाना सुरक्षित रहे। वह पढ़-लिखकर जीवादि नवतत्त्वों का जानकार बने, जड़-चेतन का भेद विज्ञाता बने और बहुत बड़े विद्वानों में अव्वल नम्बर आवे। मेरा पूरा-पूरा कर्तव्य है कि जब मैंने उसे दीक्षित किया है तो उसे मैं शिक्षित भी करूं और गुरु के मन में शिष्य को शास्त्राभ्यास कराते समय यह ख्याल भी आता है कि उसे आगम ज्ञान पढ़ते देखकर अन्य लोग भी आगमज्ञान के श्रवण के प्रति आकर्षित होकर सुनने के लिए बैठेंगे। उन लोगों को जो शास्त्र-श्रवण से प्रतिबोध होगा, उसका लाभ मुझे भी मिलेगा, क्योंकि मैं निमित्त बनूंगा। इस प्रकार के उद्देश्यों से ज्ञान पढ़ाया जाता है। 2. उवग्गहणट्ठयाए---जब शिष्य मेरे से वाचना लेंगे और मैं वाचना दूंगा, तब उन शास्त्र वाक्यों को सुन-सुनकर मेरे शिष्य तप और संयम में मजबूत बन जायेंगे, उनकी आध्यात्मिक साधना दृढ़ हो जायेगी। देवता भी उन्हें सत्पथ से हिला नहीं सकेंगे। मेरा शिष्य दूसरों को उपदेश देकर सत्पथ का राही बनाने में समर्थ हो जायेगा। इस प्रकार धर्मबोध देने से गण, गच्छ और सम्प्रदाय की महती महिमा होगी। संघ की मान-मर्यादा सुरक्षित रखवाने में मैं भी निमित्त बनूँगा। मैं भी यह मानूँगा कि मेरे द्वारा शास्त्र वाचना लेने वाले शिष्य ने जिनशासन की बहुत बड़ी सेवा की है और आगे भी करता रहेगा। ऐसा सोचकर गुरु शिष्य को शास्त्र वाचना देते हैं। 3. निज्जरणट्ट्याए- कर्म निर्जरा के उद्देश्य से गुरु शिष्य को वाचना देते हैं। श्रुत साहित्य के पढ़ने से कर्गों की महती निर्जरा होती है। बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय भी एक प्रकार का तप है। वाचना तप को स्वीकार करने वाला भी एक प्रकार का तप करता है। यह बात शास्त्र सम्मत है। सभी धर्मों ने स्वाध्याय को तप माना है। स्वाध्याय आभ्यन्तर तप है। जैसा कि शास्त्रकारों ने कहा... "भवकोडिसंचियं कम्म. विसा निजरिज्जड।।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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