Book Title: Agam Sudha Sindhu Part 13
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ 198] [ श्रीमदागमसुधासिन्धुः / / त्रयोदशमो विभागः जहन्नेणं, सागरा पणवीसई // 237 // सागरा सत्तवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे / पंचमम्मि जहन्नेणं, सागरा उ छवीसई // 238 // सागरा श्रट्ठवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे / छट्ठम्मि जहन्नेणं, सागरा सत्तवीसई // 236 // सागरा अउणतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे। सत्तमंमि जहन्नेणं, सागरा वीसई // 240 // तीसं तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे। अट्ठमम्मि जहन्नेणं, सागरा अउणतीसई // 241 // सागरा इकतीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। नवमम्मि जहन्नेणं, तीसई सागरोवमा // 242 // तित्तीस सागरा उ, उकोसेण ठिई भवे / चउसुपि विजयाईसु, जहन्ना-इकतीसई // 243 // अजहन्न-मणुकोसं, तित्तीसं सागरोवमा / महाविमाण-सव्वट्टे, ठिई एसा वियाहिया // 244 // जा चेव उ पाउठिई, देवाणं तु वियाहिया / सा तेसिं कायठिई, जहन्नमुक्कोसिया भवे // 245 // अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / विजदंमि सए काए, देवाणं हुज अन्तरं // 246 // एएति वराण यो चेव, गन्धयो रसफासयो। संगणादेसयो वावि, विहारणाइ सहस्ससो // 247 // संसारत्था य सिद्धा य, इइ जीवा वियाहिया। रूविणो चेवऽरूवी य, अजीरा दुविहावि य // 248 // (अणं,न्तकालमुक्कोस, वासपुहुत्तं जहन्नयं / ग्राणयाईण कप्पाण, गेविजाणं तु अन्तरं // संखिजसागरुकोसं, वासपुहुत्तं जहन्नयं / अणुत्तराण य देवाणं, अन्तरं तु वियाहिया // ) इइ जीवमजीवे य, सुच्चा सदहिऊण या सव्वनयाण अणुमए, रमिज्जा संजमे मुणी // 24 // तयो बहूणि वासाणि, सामराणमणुपालिया। इमेणं कम्मजोगेणं, अप्पाणं संलिहे मुणी // 250 // बारसेव उ वासाई, संलेहुक्कोसिया भवे / संवच्छरं मज्झिमिया, छम्मासा य जहन्निया // 251 // पढमे वासचउक्कमि, विगई (वित्ति) निज्जूहणं करे / बिइए वासचउकम्मि, विचित्तं तु तवं चरे // 252 // एगन्तरमायाम, कट्टू

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