Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Hanssagar Gani
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 11
________________ से मलिन वृत्तिवाले जीव अपनी आपसी वैर, भय, क्रूरता इत्यादि वृत्तियों का त्याग कर देते है और दया माया में रत हो जाते हैं । ज्ञानी गुरु के वचनों को श्रवण कर राजा ने अपनी हिंसक वृत्ति का त्याग करने के साथ मिथ्यात्व का भी त्याग कर दिया और अचल सम्यग् दर्शन अंगीकार किया एवं उपरोक्त पवित्र भूमि पर उत्तम रचनावाले विशाल नगर का निर्माण किया। सिंह तरफ की ममता बताने वाले बलद एवं ऊँट को ध्यान में रखकर नगर का बलदूट (बलद-ऊँट) नाम रखा । समय के साथ अपभ्रंश हो कर आज नाम बरलूट (बल्लूट) हो गया है। किसी समय जाहोजलालीवाला नगर दीर्घकाल के थपेडे खाता हुआ आज छोटे से कस्बे में परिवर्तित हो गया है। ___ संवत् १९४९ में बरलूट में श्री संघने पार्श्वनाथजी के मंदीर के जीर्णोद्धार का निर्णय किया। जिर्णोद्धार का मुख्य कारण यह था कि उस समय अनेक श्रावकों को भूमि के भंडारित प्रतिमा के प्रकट होने के स्वप्न आने लगे तथा चित्र-विचित्र घटनाए घटने लगी जैसे कि भूमि से मनोहर वाजिंत्र का नाद एवम् सुगंध महकना इत्यादि । इन आगामिक सुचिन्हों की प्रतीति से श्री संघ द्वारा आषाढ सुद ७ को जब पार्श्वनाथजी के मंदिर के जीर्णोद्धार हेतु पाया खोदा गया, तब जमीन खोदते ही शांतिकरण श्री शांतिनाथ भगवान की तेरह तसु कदवाली मनोहर मंगलदायी मूर्ति प्रकट हुई । इस घटना से बरलूट एवं आसपास सभी गावों में आश्चर्यानंद छा गया। मूर्ति पर लेखों से खास यह बात जानने में आई की मनमोहक मूर्ति जीवदया प्रतिपालक कुमारपाल महाराजाने भराई तथा अंजनशलाका संवत १२१६ में कलिकालसर्वज्ञ जंगम युगप्रधान श्री हेमचंद्राचार्यजी के कर कमलो से हुई थी। तत्पश्चात् प्रकट हुई चमत्कारी प्रतिमाजी हेतु श्री बरलूट संघने नवीन देवालय निर्माण करने का निर्णय किया । चौदह वर्ष के समय एवं पचास हजार रुपये की लागत से स्वर्ग जैसा शोभायमान तीन शिखरबंधी भव्य जिनभुवन का निर्माण हुआ। संवत १९६४ में वैशाख महिने में इस देव मंदिर की प्रतिष्ठा मुनिमहंत श्री धनविजयजी के हाथों से हुई । हमारे पुण्य प्रताप से उपरोक्त प्रभु श्री शांतिनाथ भगवान को मूलनायकजी रूपमें उस समय बिराजमान किया । तत्पश्चात् शिखर का जिर्णोद्धार होने पर वि.सं. २०४० में पूज्य आचार्य भगवंत श्री राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. के करकमलों से पुनः ध्वजदंड की प्रतिष्ठा श्री संघने करवाई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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