Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ प्रकाशकीय सानुबाद आगम-ग्रंथों के प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत निम्न प्रकाशित आगम विद्वानों द्वारा समादत हो चुके हैं.-- १. दसवे आलियं ४. ठाणं २. सूयगडो (भाग १, भाग २) ५. समवाओ ३ उत्तरज्झयणाणि (भाग १, भाग २) इसी श्रृंखला में अनुयोगद्वार का प्रस्तुत प्रकाशन पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। मूल संशोधित पाठ, उसकी संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद, प्रत्येक प्रकरण के विषय-प्रवेश की दृष्टि से आमुख और विस्तृत टिप्पणियों से अलंकृत अनुयोगद्वार का यह प्रकाशन आगम प्रकाशन के क्षेत्र में अभिनव स्थान प्राप्त करेगा, ऐसा लिखने में संकोच नहीं होता। तेरह प्रकरणों में विभाजित इस आगम के अन्त में दिए गए परिशिष्ट ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। वे परिशिष्ट इस प्रकार हैं१. विशेषनामानुक्रम ५. देशी शब्द २. पदानुक्रम ६. प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची ३ टिप्पण : अनुक्रम ७. जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या ४. जब्दविमर्श : शब्दानुक्रम प्रस्तुत प्रकाशन के पूर्व सानुवाद आगम-प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा रचित 'आचारांगभाष्यम्' सन् १९१४ में प्रकाशित हो चुका है। उक्त प्रकाशन के बाद 'भगवई विआहपण्णत्ती' (खण्ड-१), (शतक १,२)-मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा परिशिष्ट, शब्दानुक्रम आदि, जिनदासमहत्तरकृत चूणि एवं अभयदेवसूरिकृत वृत्ति सहित प्रकाशित हुआ। पूर्व प्रकाशनों की तरह ही वाचना-प्रमुख गणाधिपति तुलसी के तत्वावधान में प्रस्तुत एवं आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित ये प्रकाशन विद्वानों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हुए हैं। जैन विश्व भारती संस्थान को अन्तिम तीन आगम-ग्रंथों के प्रकाशन का गौरव प्राप्त हुआ। इसके लिए संस्थान हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता है। प्रस्तुत आगम के प्रस्तुतीकरण में सहयोगी के रूप में इन साध्वियों का प्रचुर योगदान रहा है-साध्वी श्रुतयशाजी, साध्वी मुदितयशाजी और साध्वी विश्रुतविभाजी । मुनिश्री हीरालालजी के अत्यधिक श्रमसाध्य बहुमूल्य योगदान की किन शब्दों में प्रशंसा की जाये। वे धूरी की तरह कार्यशील रहे हैं। प्रस्तुत प्रकाशन को पाठकों के सम्मुख रखते हुए जो प्रसन्नता हो रही है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती । विश्वास है, यह प्रकाशन अनुसंधित्सु विद्वानों को अत्यन्त लाभप्रद प्रतीत होगा। जैन विश्व भारती संस्थान श्रीचन्द रामपुरिया (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं कुलाधिपति २३-९-९६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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