Book Title: Agam 23 Vrushnidasha Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 7
________________ आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा' अध्ययन / सूत्रवीरांगदकुमारने महान जन कोलाहल इत्यादि सूना और जनसमूह देखा । वह भी जमालि की तरह दर्शनार्थ नीकला | धर्मदेशना श्रवण करके उसने अनगार- दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया और फिर जमालि की तरह ही प्रव्रज्या अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया । तत्पश्चात् उस वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ आचार्य से सामायिक से यावत् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् विविध प्रकार के तपःकर्म से आत्मा को परिशोधित करते हुए परिपूर्ण पैंतालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर द्विमासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके १२० भक्तों- भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर, आलोचना प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि सहित कालमास में मरण कर ब्रह्मलोककल्प के मनोरम विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वीरांगद देव की दस सागरोपम की स्थिति हुई । यह वीरांगद देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर के इसी द्वारवती नगरी में बलदेव राजा की रेवती देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यथासमय बालक का जन्म हुआ, वह तरुणावस्था में आया, पाणिग्रहण हुआ यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषधकुमार विचरण कर रहा है। इस प्रकार, हे वरदत्त ! इस निषध कुमार को यह उत्तम मनुष्य ऋद्धिलब्ध प्राप्त और अधिगत हुई है। भगवन् ! क्या निषध कुमार आप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रव्रजित होने के लिए समर्थ है ? हाँ वरदत्त ! समर्थ है। आप का कथन यथार्थ है, भदन्त । इत्यादि कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । इस के बाद किसी एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारवती नगरी से नीकले यावत् बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे । निषध कुमार जीवाजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया । किसी समय पौषधशाला में निषधकुमार आया । घास के संस्तारक पर बैठ कर पोषधव्रत ग्रहण किया । तब उस निषधकुमार को मध्यरात्रिमें धार्मिक चिन्तन करते हुए आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ वे ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश निवासी धन्य हैं जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु विचरण करते हैं तथा वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो अरिष्टनेमि प्रभु को वंदन - नमस्कार करते हैं, यदि अर्हत् अरिष्टनेमि पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए, यावत् यहाँ नन्दनवन में पधारें तो मैं उन अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु को वंदन नमस्कार करूँगा यावत् पर्युपासना करूँगा निषध कुमार के मनोगत विचार को जानकर अरिष्टनेमि अर्हत् १८००० श्रमणों के साथ ग्राम-ग्राम आदि में गमन करते हुए यावत् नन्दनवन में पधारे । परिषद् नीकली । तब निषध कुमार भी अरिष्टनेमि अर्हत् के पदार्पण के वृत्तान्त को जानकर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ चार घंटो वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर जमालि की तरह कला, यावत् माता-पिता से आज्ञा अनुमति प्राप्त करके प्रव्रजित हुआ। यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। तत्पश्चात् उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से ले कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के यावत् विचित्र तपः कर्मों से आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया । बयालीस भोजनों को अनशन द्वारा त्याग कर आलोचन और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ। तब वरदत्त अनगार निषेध कुमार को कालगत जान कर अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के पास आए यावत् कहादेवानुप्रिय ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत जो आपका शिष्य निषध अनगार था वह कालमास में काल को प्राप्त होकर कहाँ गया है ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने कहा- हे भदन्त ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत मेरा अन्तेवासी निषध अनगार मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, यावत् मरण कर के ऊर्ध्वलोकमें, ज्योतिष्क देव विमानों, सौधर्म यावत् अच्युत देवलोकों का तथा ग्रैवेयक विमानों का अतिक्रमण कर के सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है । वहाँ निषधदेव की स्थिति भी तेंतीस सागरोपम की है । 'भदन्त ! वह निषधदेव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के पश्चात् वहाँ से च्यवन कर के कहाँ मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (वृष्णिदशा) आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Page 7Page Navigation
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