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नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नम: पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नम:
आगम-२३
वृष्णिदशा आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
अनुवादक एवं सम्पादक
आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी
[ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ]
आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-२३
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अध्ययन/सूत्र
आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
आगमसूत्र-२३- "वृष्णिदशा' उपांगसूत्र-१२- हिन्दी अनुवाद
कहां क्या देखे?
क्रम
विषय
पृष्ठ क्रम
विषय
अध्ययन-१'निषध'
| ०५ । २ । अध्ययन-२ से १२
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (वृष्णिदशा) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र- १२, 'वृष्णिदशा'
क्रम
०१
०२
०३ स्थान
०४
०५
०६
आगम का नाम
आचार
सूत्रकृत्
समवाय
भगवती
ज्ञाताधर्मकथा
०७ उपासकदशा
०८ अंतकृत् दशा
०९ अनुत्तरोपपातिकदशा
१०
प्रश्नव्याकरणदशा
११ विपाकश्रुत
१२ औपपातिक
१३ राजप्रश्निय
१४ जीवाजीवाभिगम
१५ प्रज्ञापना
१६ सूर्यप्रज्ञप्ति
१७ चन्द्रप्रज्ञप्ति
१८ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति
१९ निरयावलिका
कल्पवतंसिका
२०
२१ पुष्पक
२२ पुष्पचूलिका
२३ वृष्णिदशा
२४
चतुःशरण
४५ आगम वर्गीकरण
सूत्र
क्रम
अंगसूत्र- १
२५
अंगसूत्र - २ २६
अंगसूत्र- ३ २७
अंगसूत्र-४
अंगसूत्र- ५
अंगसूत्र- ६
अंगसूत्र-७
अंगसूत्र- ८
अंगसूत्र- ९
उपांगसूत्र-१०
उपांगसूत्र-११
उपांगसूत्र-१२
पयन्नासूत्र - १
आतुरप्रत्याख्यान
महाप्रत्याख्यान
भक्तपरिज्ञा
२८ तंदुलवैचारिक
२९ संस्तारक
आगम का नाम
३०.१ गच्छाचार
३०.२ चन्द्रवेध्यक
३१
गणिविद्या
३२
देवेन्द्रस्तव
३३
वीरस्तव
३४
निशीथ
३५
बृहत्कल्प
३६ व्यवहार
अंगसूत्र- १०
अंगसूत्र- ११
उपांगसूत्र- १
उपांगसूत्र-२
उपांगसूत्र-३
उपांगसूत्र-४
३८ जीतकल्प
महानिशीथ
उपांगसूत्र-५ ३९ उपांगसूत्र-६ ४० आवश्यक
उपांगसूत्र-७ ४१.१ ओघनिर्युक्ति
उपांगसूत्र-८
४१.२ पिंडनिर्युक्ति
उपांगसूत्र- ९
४२
दशवैकालिक
४३
४४ नन्दी
४५ अनुयोगद्वार
३७
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( वृष्णिदशा)" आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद"
दशाश्रुतस्कन्ध
उत्तराध्ययन
अध्ययन/सूत्र
सूत्र
पयन्नासूत्र - २
पयन्नासूत्र - ३
पयन्नासूत्र-४
पयन्नासूत्र-५
पयन्नासूत्र - ६
पयन्नासूत्र- ७
पयन्नासूत्र - ७
पयन्नासूत्र - ८
पयन्नासूत्र- ९
पयन्नासूत्र - १०
छेदसूत्र - १
छेदसूत्र-२
छेदसूत्र - ३
छेदसूत्र - ४
छेदसूत्र -५
छेदसूत्र - ६
मूलसूत्र - १
मूलसूत्र - २
मूलसूत्र - २
मूलसूत्र - ३
मूलसूत्र - ४
चूलिकासूत्र - १
चूलिकासूत्र - २
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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
अध्ययन/सूत्र
10
[45]
06
मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य
आगम साहित्य साहित्य नाम बक्स क्रम
साहित्य नाम मूल आगम साहित्य:
147 6 आगम अन्य साहित्य:1-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] -1- याराम थानुयोग
06 -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net
-2- आगम संबंधी साहित्य
02 -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] | -3- ऋषिभाषित सूत्राणि
01 आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली
01 1-1-मागमसूत्रगुती सनुवाई
[47] | | आगम साहित्य- कुल पुस्तक
516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: [47] | -3- Aagamsootra English Trans. | [11] | -4- सामसूत्रसटी ४राती सनुवाई | [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print [12]
अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य:171 1तवाल्यास साहित्य
-13 -1- आगमसूत्र सटीक
[46] 2 सूत्रात्यास साहित्य-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-11151]| 3
વ્યાકરણ સાહિત્ય
05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-20
વ્યાખ્યાન સાહિત્ય
04 -4-आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 उनलत साहित्य
09 | -5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 aoसाहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य
03 |-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य
04 आगम कोष साहित्य:
149 પૂજન સાહિત્ય
02 -1- आगम सद्दकोसो
તીર્થકર સંક્ષિપ્ત દર્શન -2- आगम कहाकोसो [01]| 11 ही साहित्य
05 -3-आगम-सागर-कोष:
[05] 12
દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] | આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:
09 -1- भागमविषयानुभ- (भूग)
02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम
दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन KAAREमुनिहीपरत्नसागरनुं साहित्य
| भुनिटीपरत्नसागरनुं सागम साहित्य [इस पुस्त8 516] तना हुदा पाना [98,300] 2 भुनिटीपरत्नसागरनुं मन्य साहित्य [हुत पुस्त8 85] तना हुस पाना [09,270] 3 मुनिहीपरत्नसार संलित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तनाहुल पाना [27,930] |
सभा। प्राशनो 5०१ + विशिष्ट DVD पाना 1,35,500
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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
अध्ययन/सूत्र
[२३] वृष्णिदशा उपांगसूत्र-१२-हिन्दी अनुवाद
अध्ययन-१-निषध सूत्र-१
भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए भगवान महावीरने चतुर्थ उपांग पुष्पचूलिका का यह अर्थ कहा है तो हे भदन्त ! पाँचवे वण्हिदशा नामक उपांग-वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? हे जम्बू ! पाँचवे वण्हिदशा उपांग के बारह अध्ययन कहे हैं। सूत्र-२
निषध, मातलि, वह, वेहल, पगया, युक्ति, दशरथ, दृढरथ, महाधन्वा, सप्तधन्वा, दशधन्वा और शतधन्वा । सूत्र-३
हे भदन्त ! श्रमण यावत् संप्राप्त भगवान ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?
हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती-नगरी थी । वह पूर्व-पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, उसका निर्माण स्वयं धनपति ने अपने मतिकौशल से किया था । स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ प्राकार और पंचरंगी मणियों के बने कंगूरों से वह शोभित थी । अलकापुरी-समान सुन्दर थी । उस के निवासीजन प्रमोदयुक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे । वह साक्षात् देवलोक सरीखी प्रतीत होती थी । प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी।
उस द्वारका नगरी के बाहर ईशान कोण में रैवतक पर्वत था । वह बहुत ऊंचा था और उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे । वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था । हंस, मृग, मयूर आदि पशु-पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था । उसमें अनेक तट, मैदान, गुफाएं, झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के मिथुनों से व्याप्त रहता था । तीनों लोकों में बलशाली मानेजानेवाले दसारवंशीय वीर पुरुषों द्वारा वहाँ नित्य नये-नये उत्सव मनाए जाते थे । वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादिक, दर्शनीय, मनोहर और अतीव मनोरम
था
उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप नन्दनवन उद्यान था । वह सर्व ऋतुओं सम्बन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध, रमणीय नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, मनमोहक और मन को आकर्षित करनेवाला था । उस नन्दनवन उद्यान के अति मध्यभाग में सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था । अति पुरातन था यावत् बहुत से लोग वहाँ आ-आकर सुरप्रिय यक्षायतन की अर्चना करते थे । सुरप्रिय यक्षायतन पूर्णभद्र चैत्य के समान चारों ओर से एक विशाल वनखंड से पूरी तरह घिरा हुआ था, यावत् उस वनखण्ड में एक पृथ्वीशिलापट्ट था।
उस द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव राजा थे । वे वहाँ समुद्रविजय आदि दस दसारों का, बलदेव आदि पाँच महावीरों का, उग्रसेन आदि १६००० राजाओं का, प्रद्युम्न आदि साढे तीन करोड़ कुमारों का, शाम्ब आदि ६०००० दर्दान्त योद्धाओं का, वीरसेन आदि २१००० वीरों का, रुक्मिणी आदि १६००० रानियों का, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं का तथा अन्य बहुत से राजाओं, ईश्वरों यावत् सार्थवाहों वगैरह का उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का तथा द्वारका नगरी का अधिपतित्व, नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व आज्ञैश्वर्यत्व और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए, उन पर प्रशासन करते हुए विचरते थे ।
उसी द्वारका नगरी में बलदेव नामक राजा थे । वे महान थे यावत् राज्य का प्रशासन करते हुए रहते थे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (वृष्णिदशा) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
अध्ययन/सूत्रउन बलदेव राजा की रेवती नाम की पत्नी थी, जो सुकुमाल थी यावत् भोगोपभोग भोगती हुई विचरण करती थी। किसी समय रेवती देवी ने अपने शयनागार में सोते हुए यावत् स्वप्न में सिंह को देखा । स्वप्न देखकर वह जागृत हुई। उन्हें स्वप्न देखने का वृत्तान्त कहा । यथासमय बालक का जन्म हुआ । महाबल के समान उसने बोहत्तर कलाओं का अध्ययन किया । एक ही दिन पचास उत्तम राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ इत्यादि । विशेषता यह है कि उस बालक का नाम निषध था यावत् वह आमोद-प्रमोद के साथ समय व्यतीत करने लगा।
उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु पधारे । वे धर्म की आदि करनेवाले थे, इत्यादि अर्हत् अरिष्टनेमि दस धनुष की अवगाहना वाले थे । परिषद् नीकली । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह संवाद सून कर हर्षित एवं संतुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियों! शीघ्र ही सुधर्मासभा में जाकर
भेरी को बजाओ। तब वे कौटम्बिक पुरुष यावत सधर्मासभा में आए और सामदायिक भेरी को जोर
॥ | उस सामुदानिक भेरी को जोर-जोर से बजाए जाने पर समद्रविजय आदि दसार, देवियाँ यावत अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाएं तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति स्नान कर यावत् प्रायश्चित्त-मंगलविधान कर सर्व अलंकारों से विभूषित हो यथोचित अपने-अपने वैभव ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ उपस्थित हुए।
उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् कृष्ण वासुदेव का जय-विजय शब्दों से अभिनन्दन किया । तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को यह आज्ञा दी-देवानुप्रियों ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को विभूषित करो
और चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव यावत् स्नान करके, वस्त्रालंकार से विभूषित होकर आरूढ हुए । आगे-आगे मांगलिक द्रव्य चले और कूणिक राजा के समान उत्तम श्रेष्ठ चामरों से विंजाते हुए समुद्रविजय आदि दस दसारों यावत् सार्थवाह आदि के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों के साथ द्वारवती नगरी के मध्य भाग में से नीकले इत्यादि वर्णन कूणिक के समान जानना ।
तब उस उत्तम प्रासाद पर रहे हुए निषधकुमार को उस जन-कोलाहल आदि को सून कर कौतूहल हुआ और वह भी जमालि के समान ऋद्धि वैभव के साथ प्रासाद से नीकला यावत् भगवान के समवसरण में धर्म श्रवण कर और उसे हृदयंगम करके भगवान को वंदन-नमस्कार कर के इस प्रकार बोला-भदन्त ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ इत्यादि । चित्त सारथी के समान यावत् उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया और वापिस लौटा।
उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्त अनगार विचरण कर रहे थे । उन वरदत्त अनगार ने निषधकुमार को देखकर जिज्ञासा हुई यावत् अरिष्टनेमि भगवान की पर्युपासना करते हुए कहाअहो भगवन् ! यह निषधकुमार इष्ट, इष्ट रूपवाला, कमनीय, कमनीय रूप से सम्पन्न एवं प्रिय, प्रिय रूपवाला, मनोज्ञ, मनोज्ञ रूपवाला, मणाम, मणाम रूपवाला, सौम्य, सौम्य रूपवाला, प्रियदर्शन और सुन्दर है । भदन्त ! इस निषध कुमार को इस प्रकार की यह मानवीय ऋद्धि कैसे उपलब्ध हुई, कैसे प्राप्त हुई ?
अर्हत् अरिष्टनेमि ने कहा-आयुष्मन् वरदत्त ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रोहीतक नगर था । वह धन धान्य से समृद्ध था इत्यादि । वहाँ मेघवन उद्यान था और मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था । उस रोहीतक नगर का राजा महाबल था और रानी पद्मावती थी । किसी एक रात उस पद्मावती ने सुखपूर्वक शय्या पर सोते हए स्वप्न में सिंह को देखा यावत महाबल के समान पुत्रजन्म का वर्णन जानना । विशेषता यह की पुत्र का नाम वीरांगद रखा यावत् बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ, यावत् वैभव के अनुरूप छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द यावत् स्पर्श वाले पंच प्रकार के मानवीय कामभोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगा।
उस काल और उस समय जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों वाले केशीश्रमण जैसे किन्तु बहुश्रुत के धनी एवं विशाल शिष्यपरिवार सहित सिद्धार्थ आचार्य रोहीतक नगर के मणिदत्त यक्ष के यक्षायतन में पधारे और साधुओं के योग्य अवग्रह लेकर बिराजे । दर्शनार्थ परिषद् नीकली । तब उत्तम प्रासाद में वास करनेवाले उस
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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
अध्ययन / सूत्रवीरांगदकुमारने महान जन कोलाहल इत्यादि सूना और जनसमूह देखा । वह भी जमालि की तरह दर्शनार्थ नीकला | धर्मदेशना श्रवण करके उसने अनगार- दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया और फिर जमालि की तरह ही प्रव्रज्या अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया ।
तत्पश्चात् उस वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ आचार्य से सामायिक से यावत् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् विविध प्रकार के तपःकर्म से आत्मा को परिशोधित करते हुए परिपूर्ण पैंतालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर द्विमासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके १२० भक्तों- भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर, आलोचना प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि सहित कालमास में मरण कर ब्रह्मलोककल्प के मनोरम विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वीरांगद देव की दस सागरोपम की स्थिति हुई ।
यह वीरांगद देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर के इसी द्वारवती नगरी में बलदेव राजा की रेवती देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यथासमय बालक का जन्म हुआ, वह तरुणावस्था में आया, पाणिग्रहण हुआ यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषधकुमार विचरण कर रहा है। इस प्रकार, हे वरदत्त ! इस निषध कुमार को यह उत्तम मनुष्य ऋद्धिलब्ध प्राप्त और अधिगत हुई है।
भगवन् ! क्या निषध कुमार आप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रव्रजित होने के लिए समर्थ है ? हाँ वरदत्त ! समर्थ है। आप का कथन यथार्थ है, भदन्त । इत्यादि कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । इस के बाद किसी एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारवती नगरी से नीकले यावत् बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे । निषध कुमार जीवाजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया ।
किसी समय पौषधशाला में निषधकुमार आया । घास के संस्तारक पर बैठ कर पोषधव्रत ग्रहण किया । तब उस निषधकुमार को मध्यरात्रिमें धार्मिक चिन्तन करते हुए आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ वे ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश निवासी धन्य हैं जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु विचरण करते हैं तथा वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो अरिष्टनेमि प्रभु को वंदन - नमस्कार करते हैं, यदि अर्हत् अरिष्टनेमि पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए, यावत् यहाँ नन्दनवन में पधारें तो मैं उन अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु को वंदन नमस्कार करूँगा यावत् पर्युपासना
करूँगा
निषध कुमार के मनोगत विचार को जानकर अरिष्टनेमि अर्हत् १८००० श्रमणों के साथ ग्राम-ग्राम आदि में गमन करते हुए यावत् नन्दनवन में पधारे । परिषद् नीकली । तब निषध कुमार भी अरिष्टनेमि अर्हत् के पदार्पण के वृत्तान्त को जानकर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ चार घंटो वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर जमालि की तरह कला, यावत् माता-पिता से आज्ञा अनुमति प्राप्त करके प्रव्रजित हुआ। यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया।
तत्पश्चात् उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से ले कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के यावत् विचित्र तपः कर्मों से आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया । बयालीस भोजनों को अनशन द्वारा त्याग कर आलोचन और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ।
तब वरदत्त अनगार निषेध कुमार को कालगत जान कर अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के पास आए यावत् कहादेवानुप्रिय ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत जो आपका शिष्य निषध अनगार था वह कालमास में काल को प्राप्त होकर कहाँ गया है ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने कहा- हे भदन्त ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत मेरा अन्तेवासी निषध अनगार मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, यावत् मरण कर के ऊर्ध्वलोकमें, ज्योतिष्क देव विमानों, सौधर्म यावत् अच्युत देवलोकों का तथा ग्रैवेयक विमानों का अतिक्रमण कर के सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है । वहाँ निषधदेव की स्थिति भी तेंतीस सागरोपम की है ।
'भदन्त ! वह निषधदेव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के पश्चात् वहाँ से च्यवन कर के कहाँ
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (वृष्णिदशा) आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
अध्ययन/सूत्रजाएगा ?' 'आयुष्मन् वरदत्त ! इसी जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र के उन्नाक नगर में विशुद्ध पितृवंश वाले राजकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा । बाल्यावस्था के पश्चात् युवावस्था को प्राप्त करके तथारूप स्थविरों से केवलबोधिसम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अगार त्याग कर अनगार प्रव्रज्या को अंगीकार करेगा।
ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार होगा और बहुत से चतुर्थभक्त, आदि विचित्र तपसाधना द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणावस्था का पालन करेगा । मासिक संलेखना द्वारा आत्मा को शुद्ध करेगा, साठ भोजनों का अनशन द्वारा त्याग करेगा और जिस प्रयोजन के लिए नग्नभाव, मुंडभाव, स्नानत्याग यावत् दाँत धोने का त्याग, छत्र का त्याग, उपानह का त्याग तथा केशलोंच, ब्रह्मचर्य ग्रहण करना, भिक्षार्थ पर-गृह में प्रवेश करना, यथापर्याप्त भोजन की प्राप्ति होना या न होना, तीव्र और सामान्य ग्रामकंटकों को सहन किया जाता है, उस साध्य की आराधना करेगा और आराधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा।
'इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान महावीर ने वृष्णिदशा के प्रथम अध्ययन का यह आशय प्रतिपादित किया है, ऐसा मैं
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अध्ययन-२-से-१२ सूत्र-४
इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनों का आशय भी संग्रहणी-गाथा के अनुसार बिना किसी हीनाधिकता के जैसा का तैसा जान लेना।
अध्ययन-१-से-१२-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
० निरयावलिका श्रुतस्कंध समाप्त हुआ, इसके साथ ही उपांगों का वर्णन भी पूर्ण हुआ । निरयावलिका उपांग में एक श्रुतस्कन्ध है । उसके पाँच वर्ग हैं, जिनका पाँच दिनों में निरूपण किया जाता है।
(२३)-वृष्णिदशा-उपांगसूत्र-१२ का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (वृष्णिदशा) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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________________ आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा' अध्ययन/सूत्र नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूश्यपाश्री आनंह-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्भसार शुल्यो नम: 23 KYWOO वाष्णदशा आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक] आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि] QG 21182:- (1) (2) deepratnasagar.in मेला मेड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोला/ 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(वृष्णिदशा) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 9