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आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा'
अध्ययन/सूत्र
[२३] वृष्णिदशा उपांगसूत्र-१२-हिन्दी अनुवाद
अध्ययन-१-निषध सूत्र-१
भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए भगवान महावीरने चतुर्थ उपांग पुष्पचूलिका का यह अर्थ कहा है तो हे भदन्त ! पाँचवे वण्हिदशा नामक उपांग-वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? हे जम्बू ! पाँचवे वण्हिदशा उपांग के बारह अध्ययन कहे हैं। सूत्र-२
निषध, मातलि, वह, वेहल, पगया, युक्ति, दशरथ, दृढरथ, महाधन्वा, सप्तधन्वा, दशधन्वा और शतधन्वा । सूत्र-३
हे भदन्त ! श्रमण यावत् संप्राप्त भगवान ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?
हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती-नगरी थी । वह पूर्व-पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, उसका निर्माण स्वयं धनपति ने अपने मतिकौशल से किया था । स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ प्राकार और पंचरंगी मणियों के बने कंगूरों से वह शोभित थी । अलकापुरी-समान सुन्दर थी । उस के निवासीजन प्रमोदयुक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे । वह साक्षात् देवलोक सरीखी प्रतीत होती थी । प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी।
उस द्वारका नगरी के बाहर ईशान कोण में रैवतक पर्वत था । वह बहुत ऊंचा था और उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे । वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था । हंस, मृग, मयूर आदि पशु-पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था । उसमें अनेक तट, मैदान, गुफाएं, झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के मिथुनों से व्याप्त रहता था । तीनों लोकों में बलशाली मानेजानेवाले दसारवंशीय वीर पुरुषों द्वारा वहाँ नित्य नये-नये उत्सव मनाए जाते थे । वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादिक, दर्शनीय, मनोहर और अतीव मनोरम
था
उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप नन्दनवन उद्यान था । वह सर्व ऋतुओं सम्बन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध, रमणीय नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, मनमोहक और मन को आकर्षित करनेवाला था । उस नन्दनवन उद्यान के अति मध्यभाग में सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था । अति पुरातन था यावत् बहुत से लोग वहाँ आ-आकर सुरप्रिय यक्षायतन की अर्चना करते थे । सुरप्रिय यक्षायतन पूर्णभद्र चैत्य के समान चारों ओर से एक विशाल वनखंड से पूरी तरह घिरा हुआ था, यावत् उस वनखण्ड में एक पृथ्वीशिलापट्ट था।
उस द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव राजा थे । वे वहाँ समुद्रविजय आदि दस दसारों का, बलदेव आदि पाँच महावीरों का, उग्रसेन आदि १६००० राजाओं का, प्रद्युम्न आदि साढे तीन करोड़ कुमारों का, शाम्ब आदि ६०००० दर्दान्त योद्धाओं का, वीरसेन आदि २१००० वीरों का, रुक्मिणी आदि १६००० रानियों का, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं का तथा अन्य बहुत से राजाओं, ईश्वरों यावत् सार्थवाहों वगैरह का उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का तथा द्वारका नगरी का अधिपतित्व, नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व आज्ञैश्वर्यत्व और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए, उन पर प्रशासन करते हुए विचरते थे ।
उसी द्वारका नगरी में बलदेव नामक राजा थे । वे महान थे यावत् राज्य का प्रशासन करते हुए रहते थे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (वृष्णिदशा) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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