Book Title: Agam 23 Vrushnidasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 6
________________ आगम सूत्र २३,उपांगसूत्र-१२, 'वृष्णिदशा' अध्ययन/सूत्रउन बलदेव राजा की रेवती नाम की पत्नी थी, जो सुकुमाल थी यावत् भोगोपभोग भोगती हुई विचरण करती थी। किसी समय रेवती देवी ने अपने शयनागार में सोते हुए यावत् स्वप्न में सिंह को देखा । स्वप्न देखकर वह जागृत हुई। उन्हें स्वप्न देखने का वृत्तान्त कहा । यथासमय बालक का जन्म हुआ । महाबल के समान उसने बोहत्तर कलाओं का अध्ययन किया । एक ही दिन पचास उत्तम राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ इत्यादि । विशेषता यह है कि उस बालक का नाम निषध था यावत् वह आमोद-प्रमोद के साथ समय व्यतीत करने लगा। उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु पधारे । वे धर्म की आदि करनेवाले थे, इत्यादि अर्हत् अरिष्टनेमि दस धनुष की अवगाहना वाले थे । परिषद् नीकली । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह संवाद सून कर हर्षित एवं संतुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियों! शीघ्र ही सुधर्मासभा में जाकर भेरी को बजाओ। तब वे कौटम्बिक पुरुष यावत सधर्मासभा में आए और सामदायिक भेरी को जोर ॥ | उस सामुदानिक भेरी को जोर-जोर से बजाए जाने पर समद्रविजय आदि दसार, देवियाँ यावत अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाएं तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति स्नान कर यावत् प्रायश्चित्त-मंगलविधान कर सर्व अलंकारों से विभूषित हो यथोचित अपने-अपने वैभव ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ उपस्थित हुए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् कृष्ण वासुदेव का जय-विजय शब्दों से अभिनन्दन किया । तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को यह आज्ञा दी-देवानुप्रियों ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को विभूषित करो और चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव यावत् स्नान करके, वस्त्रालंकार से विभूषित होकर आरूढ हुए । आगे-आगे मांगलिक द्रव्य चले और कूणिक राजा के समान उत्तम श्रेष्ठ चामरों से विंजाते हुए समुद्रविजय आदि दस दसारों यावत् सार्थवाह आदि के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों के साथ द्वारवती नगरी के मध्य भाग में से नीकले इत्यादि वर्णन कूणिक के समान जानना । तब उस उत्तम प्रासाद पर रहे हुए निषधकुमार को उस जन-कोलाहल आदि को सून कर कौतूहल हुआ और वह भी जमालि के समान ऋद्धि वैभव के साथ प्रासाद से नीकला यावत् भगवान के समवसरण में धर्म श्रवण कर और उसे हृदयंगम करके भगवान को वंदन-नमस्कार कर के इस प्रकार बोला-भदन्त ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ इत्यादि । चित्त सारथी के समान यावत् उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया और वापिस लौटा। उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्त अनगार विचरण कर रहे थे । उन वरदत्त अनगार ने निषधकुमार को देखकर जिज्ञासा हुई यावत् अरिष्टनेमि भगवान की पर्युपासना करते हुए कहाअहो भगवन् ! यह निषधकुमार इष्ट, इष्ट रूपवाला, कमनीय, कमनीय रूप से सम्पन्न एवं प्रिय, प्रिय रूपवाला, मनोज्ञ, मनोज्ञ रूपवाला, मणाम, मणाम रूपवाला, सौम्य, सौम्य रूपवाला, प्रियदर्शन और सुन्दर है । भदन्त ! इस निषध कुमार को इस प्रकार की यह मानवीय ऋद्धि कैसे उपलब्ध हुई, कैसे प्राप्त हुई ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने कहा-आयुष्मन् वरदत्त ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रोहीतक नगर था । वह धन धान्य से समृद्ध था इत्यादि । वहाँ मेघवन उद्यान था और मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था । उस रोहीतक नगर का राजा महाबल था और रानी पद्मावती थी । किसी एक रात उस पद्मावती ने सुखपूर्वक शय्या पर सोते हए स्वप्न में सिंह को देखा यावत महाबल के समान पुत्रजन्म का वर्णन जानना । विशेषता यह की पुत्र का नाम वीरांगद रखा यावत् बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ, यावत् वैभव के अनुरूप छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द यावत् स्पर्श वाले पंच प्रकार के मानवीय कामभोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगा। उस काल और उस समय जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों वाले केशीश्रमण जैसे किन्तु बहुश्रुत के धनी एवं विशाल शिष्यपरिवार सहित सिद्धार्थ आचार्य रोहीतक नगर के मणिदत्त यक्ष के यक्षायतन में पधारे और साधुओं के योग्य अवग्रह लेकर बिराजे । दर्शनार्थ परिषद् नीकली । तब उत्तम प्रासाद में वास करनेवाले उस मुनि दीपरत्नसागर कृत् (वृष्णिदशा) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 6

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