Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Bhagvai Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ सम्पादकीय ग्रन्थ-बोध आगम सूत्रों के मौलिक विभाग दो हैं~अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । अंग-प्रविष्ट सूत्र महावीर के मुख्य शिष्य गणधर द्वारा रचित होने के कारण सर्वाधिक मौलिक और प्रामाणिक माने जाते हैं। उनकी संख्या वारह है-१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशा ८. अंतकृतदशा ६. अनुत्तरोपपातिकदशा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाकश्रुत १२. दष्टिवाद । बारहवां अंग अभी प्राप्त नहीं है। शेष ग्यारह अंग तीन भागों में प्रकाशित हो रहे हैं। प्रथम भाग में चार अंग हैं,-१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग और ४. समवायांग, दुसरे भाग में केवल व्याख्याप्रज्ञप्ति और तीसरे भाग में शेष छह अंग। प्रस्तुत भाग अंग साहित्य का दूसरा भाग है। इसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति का पाठान्तर सहित मूल पाठ है। प्रारम्भ में संक्षिप्त भूमिका है । विस्तृत भूमिका और शब्द-सूची इसके साथ सम्बद्ध नहीं है। उनके लिए दो स्वतन्त्र भागों की परिकल्पना है। उसके अनुसार चौथे भाग में ग्यारह अंगों की भूमिका और पांचवें भाग में उनकी शब्द-सूची होगी। प्रस्तुत पाठ और सम्पादन-पद्धति प्रस्तुत आगम का पाठ-संशोधन सात प्रतियों और टीकाओं के आधार पर किया गया है। हम पाठ-संशोधन की स्वीकृत पद्धति के अनुसार किसी एक ही प्रति को मुख्य मानकर नहीं चलते, किन्तु अर्थ-मीमांसा, पूर्वापरप्रसंग, पूर्ववर्ती पाठ और अन्य आगम-सत्रों के पाठ तथा वृत्तिगत व्याख्या को ध्यान में रखकर मूल पाठ का निर्धारण करते हैं। प्रस्तुत सूत्र की मूल टीका आज उपलब्ध नहीं है । चूणि उपलब्ध है किन्तु वह हमें प्राप्त नहीं हुई। अभयदेव सूरि ने अपनी वृत्ति में जहां-जहां मूल टीका और चूर्णि को उद्धृत किया है, उसका भी हमने पाठ-निर्धारण में उपयोग किया है। लिपिकारों ने समय-समय पर पाठ का संक्षेप किया है। उस संक्षेपीकरण के अनेक रूप मिलते हैं । पाठ-संशोधन में प्रयुक्त प्रतियों में क्रोधोपयुक्त आदि भंगों की चार वाचनाएं मिलती हैं। उनमें पाठ का संक्षेप भिन्न-भिन्न प्रकार से किया गया है, देखेंआगम प० ३६ 1 लिपिभेद के कारण भी पाठ में गलतियां हुई हैं। ११३६५ सूत्र में प्रादोषिकी क्रिया के लिए 'पाओसियाए' पाठ है । कुछ प्रतियों में 'पाउसियाए' पाठ मिलता है। प्राचीन लिपि में 'ओ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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