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कि लगभग ५ हजार वर्षों से इस देश में वैदिक ग्रन्थों के प्राचीन पाठों को उनके मौलिक शुद्धरूप में सुरक्षित रखने के लिए उन्हें परम सावधानी और उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ कण्ठस्थ करने का इतना घोर प्रयत्न होता रहा है कि जिसका किसी भी दूसरे देश के साहित्यिक इतिहास में उदाहरण नहीं है । किन्तु ऐसा होने पर भी, जैसा कि इस वैदिक अनुसन्धान के क्षेत्र में कार्य करने वाले हमारे पूर्ववर्ती विद्वानों को देखने में संयोगवश कुछ-कुछ और गत चालीस वर्षों के सतत शोध कार्य के मध्य में हमारे देखने में, विस्तृत रूप में आया है कि ये ग्रन्थ भी कालकृत विध्वंस और मानवकृत संक्रमण की अपूर्णता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । यदि ऐसा बहुधा होता तो सचमुच यह एक अविश्वसनीय चमत्कार ही होता ।"
कण्ठस्थ परंपरा से चलने वाले तथा प्रलंब अवधि में लिपि परिवर्तन के 'युग में संक्रमण करने वाले प्रत्येक ग्रन्थ के कुछ स्थल मौलिकता से इतस्ततः हुए हैं।
प्रतिपरिचय
(क) सूत्रकृतांग मूलपाठ
यह प्रति 'घेवर पुस्तकालय' सुजानगढ़ की है। इसकी पत्र संख्या ६४ व पृष्ठ संख्या १८८ है । प्रत्येक पत्र मे ११ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में ३२ से ३७ तक अक्षर है । प्रति की लम्बाई ११ ॥ इंच व चौड़ाई ४ इंच है । प्रति शुद्ध व बड़े अक्षरों में स्पष्ट लिखी हुई है। यह प्रति संवत् १५८१ में लिखी हुई है । इसके अन्त में निम्न प्रशस्ति है !--
संवत् १५८१ वर्षे पत्तन नगरे श्री खरतरगच्छे श्री जिनवर्द्धनसूरि श्री जिनचन्द्रसूरि । श्री जिनसागरसूरि । श्री जिनसुन्दरसूरि पट्ट पूर्वाचल सहस्रकरावतार श्री जिनहर्ष सूरिपट्टे श्री जिनचन्द्रसूरीणामुपदेशेन ऊकेशवंशे साधुशाखायां । सो० जीवाभार्या श्रावारुपुत्ररत्न सो० महिवाल सो० गांगाख्यो सा० तंत्र सो गांगा भार्या श्रा० धीरुपुत्र सो० पदमसी सो० हरिचंद विद्यमानपुत्र सो० शिवचन्द सो० देवचंद्राभ्या श्री एकादशांगी सूत्राणि अलेखिषत तत्रेदं श्री सूत्रकृतांगसूत्रं । सम्पूर्णः ॥ श्री रस्तु ||
(ख) सूत्रकृतांग बालावबोध प्रथमश्रुतस्कन्ध ( त्रिपाठी)
यह प्रति 'गधेया पुस्तकालय' सरदाशहर की है। मध्य में पाठ व दोनों तरफ वार्तिका लिखी हुई है । इसके पत्र ४३ व पृष्ठ ८६ हैं । प्रत्येक पत्र में पाठ की पंक्तियां ५-६ करीब हैं व प्रत्येक पंक्ति में अक्षर ६०-६२ करीब हैं। प्रति की लम्बाई १०३ इंच व चोड़ाई ४३ इंच है। अनुमानतः यह प्रति १७वीं शताब्दि की लगती है । प्रति के अन्त में प्रशस्ति नहीं है ।
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