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जैन-परम्परा में श्रत-पुरुष की कल्पना भी प्राप्त होती है। आचार आदि बारह आगम श्रुत-पुरुष के अंगस्थानीय हैं। संभवतः इसीलिए उन्हें बारह अंग कहा गया। इस प्रकार द्वादशांग 'गणिपिटक' और 'श्रुत-पुरुष'-दोनों का विशेषण बनता है।
आयारो
नाम-बोध---
प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का पहला अंग है। इसमें आचार का वर्णन है, इसलिए इसका नाम 'आयारो' (आचार) है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं----आयरो और आयारचला।
विषय-वस्तु
समवायांग और नन्दी में आचारांग का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसके अनुसार प्रस्तुत सुत्र आचार, गोचर, विनय, वैनयिक (विनय-फल), स्थान (उत्थितासन, निषण्णासन, और शयितासन), गमन, चंक्रमण, भोजन आदि की मात्रा, स्वाध्याय आदि में योग-नियुंजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम-उत्थान, एषणा आदि की विशुद्धि, शुद्धाशुद्ध-ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान आदि का प्रतिपादक है।
आचार्य उमास्वाति ने आचारांग के प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में प्रतिपादित किया है। वह क्रमश: इस प्रकार है--
१. षड्जीवकाय यतना। २. लौकिक संतान का गौरव-त्याग । ३. शीत-ऊष्ण आदि परीपहों पर विजय : ४. अप्रकम्पनीय सम्यक्त्व। ५. संसार से उद्वेग! ६. कर्मों को क्षीण करने का उपाय । ७. वैयावृत्य का उद्योग। ८. तपस्या की विधि। है. स्त्री-संग-त्याग ।
१. मूलाराधना, ४१५६६ विजयोदया :
श्रुतं पुरुषः मुखचरणाचंगस्थानीयत्वादंगशब्देनोच्यते । २. (क) समवाओ, पइण्णग समवानो, सू० ८६ ।
(ख) नंदी, सू००। ३. प्रशभरति प्रकरण, ११४-११७ ।
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