Book Title: Acharya Hastimalji ki Darshanik Manyataye Author(s): Sushma Singhvi Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 7
________________ • १५० • व्यक्तित्व एवं कृतित्व ५. प्रात्म-शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण-आचार्य श्री ने नित्य प्रतिक्रमण करने पर बहुत बल दिया। मरण की साधना ही जीवन का प्रयोजन होना चाहिये। गुरुदेव का दृढ़ संकल्प था कि मृत्यु महोत्सव बन जाय, राग-द्वेष की ग्रन्थि खुल जाय, समत्व की शय्या प्राप्त हो और निस्पृह भाव से प्रयारण हो इसके लिये सम्पूर्ण जीवन में संयम का अभ्यास अपेक्षित है । जीवन-पर्यन्त साधना का विलक्षण साधन है प्रतिक्रमण के माध्यम से आलोचना । आलोचना और प्रतिक्रमण आत्मा का स्नान है । बहुत से लोग कहा करते हैं कि गलती करते जाते हैं फिर प्रतिक्रमण क्यों करना ? झूठ, हिंसा आदि छोड़ा नहीं, केवल 'मिच्छामिदुक्कड़ कर गये। कल फिर ऐसा ही करना है तो प्रतिक्रमण का क्या लाभ ? मैं उन भाइयों से कहता हूँ कि नहाने के बाद मैल आना निश्चित है फिर रोज क्यों नहाते हैं ? कमरे में झाडू रोज लगता है, क्यों ? इसीलिए कि अधिक जमाव न हो। क्या यह सोच लें कि मरने के समय जब संथारा करेंगे तब सब साफ कर लेंगे ? ऐसा सोचकर ५०-६० वर्ष तक गलतियों को यूं ही दबाये रखेंगे तो वे गलतियाँ परेशान करेंगी। तन की तरह मन और आत्मा की शुद्धि भी आवश्यक है । इस शुद्धि के लिए भगवान् महावीर ने दुनिया को प्रतिक्रमण करने का आदेश दिया। (गजेन्द्र व्याख्यान माला भाग ६, पृ० ६-७) प्रतिक्रमण का अर्थ है पीछे हटना अर्थात् दोषों से हटकर आत्मा को मूल स्थिति में ले आना। (वही पृ० ५) कपड़े पर धूलि लग जाय उसे कपड़े पर रखना नहीं है। प्रतिक्रमण साधन है जाति-स्मरण ज्ञान का । अपना पूर्व भव दिखा देने की अद्भुत कला भगवान् महावीर के पास थी। साधक के वैराग्य की पुष्टि होती है जब वह पीछे लौटकर यह देख लेता है कि सत्तासम्पत्ति-सुख सभी नश्वर थे, चिरस्थायी तो आत्मा की मूल स्थिति है। इसीलिये गुरुदेव ने प्रातः-संध्या प्रतिक्रमण करने पर बल दिया। जीवन जीने की शैली ही जब तक साधनामय नहीं हो जायेगी तब तक अन्त समय मृत्यु उपस्थित होने पर संथारा साधना कल्पना मात्र ही है । जैन दर्शन की विलक्षण देन संथारा-समाधिमरण का जीवन्त निदर्शन आचार्य श्री थे । आपने अप्रमत्त संयमी जीवन के अन्तिम क्षणों की अनुपम समाधि साधना से अलौकिक दिव्य मरण का आदर्श प्रस्तुत किया । आचार्य श्री जैसे श्रमण श्रेष्ठों को लक्ष्य कर ही कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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