Book Title: Acharya Hastimalji ki Darshanik Manyataye
Author(s): Sushma Singhvi
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 10
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. . • १५३ शरीर की कोमलता को ऐसे साधो कि किसी भी परिस्थिति में वह प्रसन्न रहे । मन चंचल न बने इसका अभ्यास करने पर ही अप्रमत्त सामायिक सधती है । दुष्कृत निन्दा और सुकृत अनुमोदना से अभ्यास पूर्वक अप्रमत्त भाव का विकास करना चाहिये। __अप्रमत्त दशा के विकास हेतु श्रोता को चाहिये कि वह अपने अनुकूल वस्तु को पकड़ने का दृष्टिकोण त्याग कर श्रवण लाभ करे। ८. कुटेवों को बदलना आवश्यक-'प्रार्थना प्रवचन' पृ० ७३ के अनुसार प्राचार्य श्री की मान्यता रही कि बीतरागता प्राप्त करने के लिये जीवन में पैठी हुई कुटेवों को बदलना आवश्यक है । साथ ही अंध-विश्वासों से ऊपर उठना भी आवश्यक है। आचार्य श्री ने जन-जागरण की दिशा में व्यसन-मुक्ति और अंध-विश्वास मुक्ति का जो शंखनाद फूंका उससे हजारों की संख्या में मानवों का जीवन-सुधार हुआ । करोड़ों की राशि व्यय करके अनेक वर्षों के अनवरत प्रयास से सरकार भी जितनी लक्ष्य-पूर्ति इस क्षेत्र में नहीं कर पाई होगी जितनी प्राचार्य श्री जैसे दिव्य व्यक्तित्व ने अपने जीवन-काल में हजारों व्यक्तियों को व्यसन-मुक्त किया तथा देवी-देवताओं और अरिहंत के स्वरूप की व्याख्या कर मनौतियों, ठण्डा भोजन-प्रयोग, बलि चढ़ाना, कायक्लेश के आडम्बर करना आदि अंध-विश्वासों से जन-मानस को मुक्त कराया । देवी-देवताओं और पर्वो के धार्मिक स्वरूप की कल्पना प्रस्तुत कर जनजागरण किया और कहा कि रूढ़ि और कुरीति में मत उलझो । आचार्य श्री जन-समुदाय को छोटे-छोटे व्रतों की दीक्षा देते ओर उन व्रतों को दृढ़तापूर्वक आजीवन पालन करने की सीख देते थे । व्रत-पालन में दोष उपस्थित होने पर प्रायश्चित्त का विधान भी बताते थे । प्रायश्चित्त विधान-ज्ञान में आचार्य श्री सिद्धहस्त माने जाते थे। छोटे-छोटे व्रतों के माध्यम से पाँच इन्द्रिय विजय, चार कषाय विजय आदि के पालन की प्रेरणा करते थे । जीवन में पैठी हुई एक भी कुटेव साधना में बाधक है अत: उसे बदलना आवश्यक है । आचार्य श्री की प्रेरणा से जितनी भी संस्थाएँ आज सेवारत हैं चाहे वे बालकों को संस्कारित करने में प्रयासरत हों, चाहे युवकों में स्वाध्याय प्रवृत्ति प्रचाररत हों, चाहे प्रौढ़ों की साधना के मार्ग-दर्शन में रत हों, चाहे महिलाओं के सर्वांगीण विकास हेतु तत्पर हों, सभी संस्थाओं के संचालकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सप्तव्यसन मुक्त हों। प्राचार्य श्री की दीर्घ दृष्टि राष्ट्रीय विकास के नये आयाम प्रस्तुत करने में बहुत सहायक बनी है । इस दृष्टि से जीवनपर्यन्त साधना संघर्षरत गुरुदेव राष्ट्रीय सन्त की सरणि में आ बिराजे हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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