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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
त्यागी का स्वरूप बताते हुए यह कहा गया है कि त्यागी को गोमांसी ( अनवमदर्शी ) होना चाहिए | म का अर्थ हीन होता है अर्थात् मिध्यादर्शन अविरति आदि अम हैं । इनसे विपरीत हो हम हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को नवम कहते हैं । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र को देखने वाला - आराधने वाला होता है वह सभी पापकर्मों से दूर रहता है । ये गुण त्यागियों में अवश्य होने ही चाहिए ।
कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं । तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिंदिज सोयं लहुभूयगामी । गंथं परिणाय इहज्ज धीरे, सोयं परिण्णाय चरिज्ज दंते । उम्मज्ज लद्धुं इह माणवेहिं नो पाणिणं पाणे समरभिज्जासित्ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया— कोधादिमानं हन्याच्च वीरः, लोभस्य पश्य नरकं महन्तं । तस्मात् च वीरः विरतो धात्, छिन्द्यात् स्रोतः लघुभूतगामी । ग्रन्थं परिज्ञाय इहाद्य धीरः, स्रोतः परिज्ञाय चरेद्दान्तः । उन्मज्जनम् लब्ध्वा इह मानुष्येषु, न प्राणिनः प्राणान् समारभेथाः इति ब्रवीमि ।
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शब्दार्थ — वीरे = पराक्रमी साधक | कोहाइमाणं क्रोध और अहंकार को | हणिया= नष्ट करे | य=और | लोहस्स = लोभ से | महंतं = बड़े भारी दुखों से भरे हुए । निरयं = नरक को । पासे=देखे | तम्हा=इसलिए। वीरे वीर साधक । वहाओ = हिंसा से । विरए = दूर रहे | लहुभूयगामी = मोक्ष - गमन के लिए तत्पर होकर । सोयं = संसार के प्रवाह को अथवा शोक संताप को । छिंदिज-छेद दे | गंथं=परिग्रह को । परिणाय = अहितकर्ता जानकर । इह = आज ही । धीरे= धीर साधक | सोयं = संसार के प्रवाह को । परिणाय अहितरूप जानकर । दंते चरिज इन्द्रियों का दमन करते हुए विचरे । इह माणवेहि = इस मनुष्य भव में । उम्मजणं - उच्च स्थान | लद्ध = प्राप्त कर । पाणिणो - प्राणियों के । पाणे प्राणों की । न समारभेज्जासि = विराधना न करे ।
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भावार्थ — हे पराक्रमी साधको ! क्रोध और क्रोध के कारण रूप अहंकार को नष्ट कर दो और लोभ से अति दुख से भरी हुई नरक जैसी अधम गति में जाना पड़ता है यह समझो इसलिये हे वीर मोक्षार्थी साधको ! हिंसकवृत्ति से दूर रहो और संसार - प्रवाह का या शोक का छेदन करो, परिग्रह को अहितकर्ता जानकर उसका अभी ही त्याग करो । विषयवाञ्छा रूप संसार के प्रवाह को हित रूप जानकर इन्द्रियों का दमन करते हुए विचरो । इस मनुष्य भव में संयम की उच्च भूमिका के ऊँचे पद पर तुम
चुके हो किसी भी छोटे या बड़े प्राणियों के प्राणों को पीड़ा न पहुँचाओ। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा । वही स्वरूप हे प्रिय जम्बू ! तुझे कहता हूँ ।
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