Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 602
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन सप्तम उद्देशक ] को । अहियासित्तए-सहन करने में । चाएमि-समर्थ हूं। सीयफासं-शीत के दुख को । अहियासित्तए-सहन कर सकता हूं। तेउफासं अहि०-उष्णता के दुख को सहन कर सकता हूं। दंसमसगफासं अहि०-डाँस-मच्छर के दुख को सहन कर सकता हूँ। एकयरे कोई एक अनुकूल । अन्नतरे= दूसरी तरह के प्रतिकूल । विरूवरूवे नाना तरह के । फासे अहि०=दुखों को सहन कर सकता हूं। हिरिपडिच्छायणं-लजा ढंकने के वस्त्र को छोड़ने के दुख को। अहियासित्तए सहन करने में । नो संचाएमि-समर्थ नहीं हूं । एवं इस कारण से । से-उसको । कडिबंधणं चोलपट्टक । धारित्तए= धारण करना । कप्पह-कल्पता है । अदुवा अथवा । तत्थ-संयम में। अचेलं-वस्त्ररहित । परकमंतं पराक्रम करने वाले भिनु को । भुजो=पुनः । तण कासा फुसन्ति-तृणस्पर्श के दुख सताते हैं । सीयफासा फुसन्ति-शीत के दुख आते हैं। तेउफासा फुसन्ति उष्णता के दुख आते हैं। दंसमसग कासा फुसन्ति-डाँस-मच्छर सताते हैं । एगवरे कोई एक-अनुकूल । अन्न र अन्य किसी तरह के प्रतिकूल । विरूवरूवे फासे नाना प्रकार के दुखों को। अहियासेइ सहन करता है । अचेले वस्त्ररहित भिनु । लापवियं लाघव-हल्कापन । आगममाणे जानता हुअा। जाव= यावत् । समभिजाणिया समभाव रखे । भावार्थ-जो साधु वस्त्र हित होकर संयम के मार्ग में व्यवस्थित है उसे ऐसा विचार होता है कि मैं तृण जनित वेदना को सहन कर सकता हूँ, शीत की वेदना सहन कर सकता हूँ, उष्णता की वेदना सहन कर सकता हूँ, डांस-मच्छर की वेदना सहन कर सकता हूँ और एक या अनेक अनुकूल प्रतिकूल दुखों को सहन कर सकता हूँ परन्तु लज्जा के कारण गुह्यप्रदेश के आच्छादन का त्य ग करने में असमर्थ हूँ, ऐसे साधु को कटिवस्त्र (चोलपट्टक) धारण करना कल्पता है । (यदि उक्त कारण न हो तो वस्त्र रहित होकर विचरण करे । अथवा वस्त्ररहित होकर विचरण करने वाले साधु को पुनः तृणरपर्श परीषह पीडित करता है, शीत परीषह त्रास देता है, उष्ण परीषह संताप देता है, डांस-मछर पीड़ा पहुंचाते हैं और एक या अनेक अनुकूल-प्रतिकूल परीषह आते हैं उन्हें वह भलीभ.ति सहन करता है। वह अचेल साधक उपकरण और कर्मभार से हल्का हो जाता है। उसे तप का लाभ होता है । इस प्रकार भगवान् के कथन को जानकर सर्वात्मना-सर्व प्रकार से समभाव का सेवन करना चाहिए। विवेचन--पूर्ववर्ती उद्देशकों में तीन वस्त्र रखने वाले, दो वस्न रखने वाले और एक वन रखने साधकों का वर्णन किया गया है । क्रमशः उपकरणों की लाघवता को सूचित करते हुए सूत्रकार इस सूत्र में सर्वथा निर्वस्त्र रहने वाले साधक का वर्णन करते हैं। सब साधक एक कोटि के नहीं हो सकते। उनमें धृति, संहनन,मनोबल श्रादि की तरतमता होती है। इस तरतमता के कारण साधकों की कई कोट माँ हो जाती हैं। विशिष्ट कोटि के साधक अपना धृत और शक्ति के अनुकूल विविध प्रकार की प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) अंगीकार करते हैं। ये विविध प्रतिज्ञाएँ साधक For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670