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" [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
जो योद्धा यह कवच धारण नहीं करता वह शत्रुओं के बाणों से बिंधकर नष्ट हो जाता है।
सूत्रकार यही फरमाते हैं कि साधक प्रथम तो संसार के मनुष्यों को कामातुर और दुखातुर जानकर माता-पिता आदि के पूर्वसंयोग को त्याग कर, शान्ति पाने के लिए साधना के मार्ग में प्रवेश करके ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करते हैं परन्तु मोह का उदय होने से वे कायर बनकर सदाचार को छोड़ देते हैं। प्रथम साधना स्वीकार करते समय उनकी आत्मा जागृत और दृढ़ होती है जो चित्त-वृत्तियों को दबा देती है लेकिन बाद में जागृति कम हो जाय तो दबी हुई वृत्तियों को वेग मिलता है और वे विद्रोह कर उठती हैं जिससे साधक पलित हो जाता है । यहाँ पूर्वाध्यासों की प्रबलता का सूचन करके सतत जागृत रहने का उपदेश दिया गया है।
. सूत्र में आये हुए “वसु" और "अणुवसु" शब्द विचारणीय हैं । वसु का अर्थ है द्रव्य। संयम रूपी द्रव्य यहाँ विवक्षित है। वस्तु और तत्स्वामी के अभेद की अपेक्षा वसु का अर्थ है संयमी । अणु का अर्थ है छोटा । अर्थात्-देशअंश रूप से जो संयमी है वह अणुवसु । इसके अनुसार यह सूत्र गृहस्थ साधक, त्यागी साधक दोनों के लिए लागू होता है । गृहस्थ साधकों और त्यागी साधकों का उद्देश्य एक ही होता है। इनमें इतना अन्तर है कि गृहस्थों का त्याग, शक्ति की अल्पता से मर्यादित होता है और त्यागी साधकों का त्याग शक्ति की विशेषता से पूर्ण त्याग होता है।
ऐसा होते हुए भी जब "पुत्रादि के सम्बन्ध को छोड़ कर" यह पद सामने आता है तब यह संदेह होता है कि यह बात गृहस्थों के लिए कैसे घट सकती है ? इसका समाधान यह है कि इस पद का अर्थ गृहस्थ साधकों के पक्ष में यह करना चाहिए कि माता, पिता, पुत्र आदि के पूर्व के मोह-सम्बन्ध को छोड़कर सद्धर्म अङ्गीकार करते हैं। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मोह सम्बन्ध और कर्तव्य सम्बन्ध भिन्न-भिन्न वस्तु हैं । मोह-सम्बन्ध अनिष्टकारक है अतएव गृहस्थ साधक मोह सम्बन्ध को छोड़ता है। कर्त्तव्य सम्बन्ध साधना के मार्ग में विशेष बाधक नहीं होता। गृहस्थ का त्याग मर्यादित होता है अतएव कर्त्तव्य-सम्बन्ध उसमें बाधा उपस्थित नहीं करता। गृहस्थ अगर सम्बन्धियों में मोहसम्बन्ध रखता है तो वह श्रावक धर्म का पालन नहीं कर सकता । अतएव मोह-सम्बन्ध का त्याग करने का कहा गया है। आज-कल बहुत से लोग स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध अस्त-केवल शरीरभोग सम्बन्ध समझते हैं और माता-पिता और पुत्र का सम्बन्ध भरणपोषण करने का ही समझते हैं लेकिन वस्तुतः यह सम्बन्ध स्वार्थी और मोहजन्य है । गृहस्थ को भी श्रावकधर्म स्वीकार करने के पहले इस मोह-सम्बन्ध का त्याग करना चाहिए।
टीकाकार ने “वसु अणुवसु" का अर्थ करते हुए यह लिखा है:
वसु-द्रव्यं तद्भूतः-कषाय कालिकादिमलापगमाद्वीतरागः इत्यर्थः तद्विपर्ययेणानुवसु सराग इत्यर्थः, यदि वा वसुः-साधुः अनुवसुः श्रावकः ।
अर्थात्-वसु का अर्थ रागरहित और अनुवसु का अर्थ रागसहित अथवा वसु यानी साधु और अनुवसु यानी श्रावक । टीकाकार ने इसके प्रमाण में यह श्लोक लिखा है--
वीतरागो वसुईयो जिनो पा संयतोऽथवा । सरागो ह्यनुवसुः प्रोक्तः स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥
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