Book Title: Abhayratnasara
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Danmal Shankardas Nahta

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Page 782
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभय-रत्तसार। ७५१ उत्पत्ति होती और विनाश होता है । इसलिये भरसक पायखानापेशाव तो ऐसी ही जगह करना, जहाँ वह झट सूख जाय । ३-मुहसे धूक-खखारके करने, नाक छिनकते, के करते, कानका मेल या पीब निकालने में अथवा शरीरके किसी हिस्सेसे खून, या पीब निकाल कर फेकनेमें यह खयाल रखना चाहिये, कि वह ऐसी जगह गिरे जहाँ झट सूख जाये। दिन हो तो सूर्य की धूप जिस स्थान पर पड़े, वहीं फेंकना और उसके ऊपर राख तो हर हालतमें डाल देना प्रत्येक विवेको धर्मात्मा पुरुषको इस विषयमें पूरा ध्यान रखना चाहिय । ऐसा नहीं करनेसे अनेक संमूर्छिम पंचेन्द्रिय जीव पैदा हो कर मरते है। ४-स्नान करनेके पहले तेल लगा लेना उचित है। बंधे हुए पानीमें न नहा कर बहते हुए पानीके सोतेमें नहाना चाहिये। भरसक तो श्रावकोंको नदी, तालाब, कुण्डल आदिमें कभी नहानही नहीं चाहिये, क्योंकि इससे अनेक जीवोंको हिंसा होती है। पानीका परिमाण भी नहीं रहता कभी कभी तो भयंकर जल जीवोंसे प्राण जानेका भी भय रहता है । श्रावकको तो बिना छाने हुए पानीसे कभी नहीं नहाना चाहिये। इस बातका सदैव स्मरण रखना चाहिये, कि पाखाना पेशाब जिन मन्दिरसे कमसे कम सौ हाथ दूर पर करना चाहिये। मन्दिर के अहातमें नाल छिनवना, थक फेकना उचित नहीं है । __५-शास्त्रोंमें कहा है, कि भोजनकी थालीमें जूठन नहीं छोड़नी चाहिये। कारण उसमें कुछ ही देर बाद असंख्य समूच्छिम For Private And Personal Use Only

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