Book Title: Aasis Author(s): Champalalmuni Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 15
________________ १३ तो भाई जी महाराज देख्यो के एक न ओ पंखेरू पंख फड़-फड़ा'र उडणो चावे पण उड-उडर पाछो पड़ जावै। पण, बो के निरास हो'र उडणो छोड़ देवै । तो फेर मैं भी गणमणाऊं उडणो चावू अक्खर भेला करूं उकलत तो आप आप री है थां जिसी कविता कठेऊ ल्यावू जद कदेई हीये री हंस स्यं भाईजी महाराज रै मन रो मोरियो नाचतो तो बै कविता बणावता या कविता आपेई बण जांवती। कवि कोनी, पण कवियां रै बिच मैं ऊर्ले-बैठू, कविता रा खरड़ा'र खलीता, खोलूं और लपेटूं। आ तो बांरी नरमाई है कै बै आ केवै कै मैं कवयां रै सागै ऊळू-बैलूं ईं कारण कवी वणग्यो। साची बात तो आ है के बारै खन्नै उठण-बैठण रै जोग स्यूं ही केई कवयां री स्रणी मैं आपरो नांव लिखा लियो । आं दो ओल्यां मैं भाईजी महाराज आपरै कवी नई होणे री दुहाई दी है, पण कुण कै सके है कै आ कविता कोनी? छन्द न जाणूं, बन्ध न जाणूं, सन्ध न जाणूं भाई । तिणखो-तिणखो जोड़ मसां सी, एक छानड़ी छाई॥ आ बात सही है के बै कवयां री पांत मैं नांव लिखाणे री खातर कविता को लिखी नी, बै एक-एक सबद नै अंगूठी मैं नग री जियां आपरी कविता में जड़यो कोनी, अर मात्रा गिण-गिण' र छंद रै बंध नै पूरो को कर्यो नी । फर भी बै कवी हा। क्यूं के : कवि कोई भाटो थोड़ोई है जको घड़'र बिठाद्यो, कविता बणाई कोनी जावै बा तो आपेई बर्ण है। __'आसीस' री कवितावां भाईजी महाराज रै दिल रो दरपण है। आ कवितावां मैं एक साधक री गैरी अन्तरदिष्टी अर तत्व री ऊंडी ओलखाण है पण ग्यान री गूढ़ बातां भी अन्तर रस री मीठी चासणी मै पगेड़ी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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