Book Title: Aao Jeena Sikhe
Author(s): Alka Sankhla
Publisher: Dipchand Sankhla

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Page 49
________________ आओ जीना सीखें... Y मेरी दृष्टि ही बदली बचपन से व्यवस्थित अध्यात्म ज्ञान नहीं मिला था। मेरा स्वभाव थोड़ा वैज्ञानिक था। कुछ भी सीखना है तो वह जब तक समझ में नहीं आता और अंदर नहीं उतरता, तब तक मैं नहीं कर सकती थी। इसी समय महान ऋषि राष्ट्रसंत आनंदऋषि जी के यहां जाना होता था। उन सबका मार्गदर्शन और कृपादृष्टि मुझे प्राप्त हुई । धार्मिक परीक्षा बोर्ड, अहमदनगर में साधु-साध्वियों के स्नेहिल मार्गदर्शन ने जिंदगी को एक नई दिशा दी, प्रेरणा मिली और मैंने बहुत कुछ पाया। साध्वियां इतना कुछ देती थीं, मेरे पास तो लिखने के लिए शब्द भी नहीं। जैन साध्वियों को योग सिखाने का मौका मिला और अध्यात्म की ओर मेरा खिंचाव चालू हुआ। अहमदनगर के धार्मिक परीक्षा बोर्ड पर साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन से मेरी दृष्टि बदली। किताब क्यों लिखी? 94 जिसे ढूँढ रही थी वह सब कुछ मिल गया आर्किमेडीज जैसा नहाते-नहाते चिल्लाते आया था 'युरेका'। वैसे मुझे भी लगा 'युरेका' मिल गया। मिल गया वह ज्ञान जो मुझे चाहिए था। वह गुरु मिले जिन्हें मैं लंबे अर्से से ढूंढ रही थी और वह अभ्यासक्रम जो मेरे सारे सवालों का जवाब देता था, हर समस्या का समाधान देता था । गुरुदेव तुलसी के दर्शन हुए। जिंदगी में पहली बार महसूस किया कि ये वे है जिन्हें मैं ढूंढ रही थी। उनकी आँखें जिनमें क्या नहीं था? स्नेह, ज्ञान, और अपनी तरफ खींचने की चुंबकीय शक्ति तेरापंथ एक ऐसा पंथ मिला, जहाँ ज्ञान का खजाना है। अनुशासन है, विनय है, सेवा है। सुव्यवस्थित और सुनियोजित जीने का और विकास का क्रम है। उपहार भारत विजय के उद्देश्य के लिए रवाना होते वक्त सिकंदर महान ने अपने गुरु दार्शनिक अरस्तू से आर्शीवाद लेने के बाद पूछा- "आप के लिए भारत से क्या उपहार लाऊं?" अरस्तू बोले-"वहां से मेरे लिए कोई ऐसा गुरु लाना, जो मुझे ब्रह्मज्ञान दे सके।" - - आओ जीना सीनवें.... किताब क्यों लिखी? 95 'मिले गुरु ऐसे महान... यह ज्ञान देखकर कभी आँखें बंद करती तो आनंदाश्रु आता, कभी सोचती तो धन्य हो जाती, लगता मानव जीवन सफल हो रहा है। गुरुदेव तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसे महान व्यक्तित्त्व गुरू रूप में मिले और उन्होंने जो ज्ञान दिया, नतमस्तक हूँ मैं। मैंने जो पाया वह ज्ञान, जिससे मिलता था हर समस्या का समाधान, उसे आप तक पहुंचाना चाहती हूँ। अध्यात्म अथवा विज्ञान किताब लिखने का मुख्य एक उद्देश्य यह भी है, मेरी आँखों के सामने सभी यंगस्टर्स हैं। वह हमेशा दोलायमान मनस्थिति में रहते हैं। सबसे अहम् प्रश्न यह है - आध्यात्मिकता है या नहीं ? विज्ञान ही सबकुछ है? मेरे सामने ये ही प्रश्न थे । मेरे सामने भी मेरे पिताजी का उदाहरण है। मेरे पिताजी वैज्ञानिक दृष्टि के इन्सान थे। 100 प्रतिशत विज्ञान को ही मानते थे। धर्म पर उनका विश्वास नहीं था। संपूर्ण नास्तिक व्यक्ति थे। माँ धार्मिक, पूर्णतः आस्तिक महिला । बच्चों पर माता-पिता का गहरा प्रभाव होता है। मैं छोटी थी तब हमेशा धर्म और विज्ञान के झूले पर झूलती थी। सत्य का शोध मेरी दृष्टि पिताजी जैसी वैज्ञानिक है पर माँ के धर्म का असर भी है। फिर मैंने सोचा, मैं सत्य की खोज कर सकती हूँ। विज्ञान द्वारा सच्चाई की तह तक पहुँच सकती हूँ, तो आस्तिक-नास्तिकके झूले में झूलने से अच्छा है सत्य की शोध करो। बोध में प्रकट होता है, वही सत्य है। शोध में जो प्रकट होता है वही तथ्य है। जब मैं योगाभ्यास करने लगी, योग- निसर्गोपचार के लेक्चर भी सुनने लगी। आहार के बारे में पहली बार इतनी जानकारी मिली थी। अन और मन का क्या संबंध है, सात्विक, राजस और तामस आहार क्या है? योग सीखने के लिए संस्था में रहते थे। वहाँ का आहार, सात्विक, इतना सादा पर इतना अच्छा था।

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