Book Title: Aagam Manjusha 02 Angsuttam Mool 02 Suyagado
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar
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आयाणमहं खलु वंचयित्ता (यन्ति)। असाहुणो ते इह साहुमाणी, मायण्णि एसंति अनंतघातं (प्र० घंतं ) ॥ ५६० ॥ जे कोहणे होइ जगद्वभार्सी, विओसियं जे उ उदीरएजा । अंधे व से दंडपहं गहाय, अविओसिए धासति पावकम्मी ॥ १ ॥ जे विग्गहीए अन्नायभासी, न से समे होइ अझंझपत्ते। उ (ओ) वायकारी य हरीमणे य, एगंतदिट्टी (एगंतसड्डी पा०) य अमाइरूवे ॥ २ ॥ से पेसले सहुमे पुरिसजाए, जबन्निए चेव सुउज्जुयारे बहुंपि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अझंझपत्ते ॥ ३ ॥ जे आवि अप्पं वसुमति मत्ता, संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाऽहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सति त्रिंबभूयं ॥ ४ ॥ एगंतकूडेण उ से पलेइ, ण विज्जती मोणपर्यंसि गोते जे माणणट्टेण विउक्कसेज्जा, वसुमनतरेण अबुज्झमाणे ॥ ५ ॥ जो माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपुत्ते तह लेच्छई वा । जो पवईए परदत्तभोई, गोते ण जे धन्मति(धंभति) माणचद्धे ॥ ६ ॥ न तस्स जाई व कुलं व ताणं णष्णत्थ विज्ञाचरणं सुचिण्णं णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्मं (प्र० मग्गं), ण से पारए होइ विमोयणाए ॥७॥ णिकिंचणे भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ॥ ८ ॥ जे भासवं भिक्खु सुसाहुबादी, पडिहाणवं होइ बिसारए य। आगाढपण्णे सुविभावियप्पा, अन्नं जणं पन्नया (प्र० पन्नसा ) परिहवेना ॥ ९॥ एवंण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खु विउकसेज्जा । अहवाऽवि जे ला (प्र० लो) भमयावलित्ते, अन्नं जणं खिसति वालपन्ने ॥ ५७० ॥ पन्नामयं चैव तवोमयं च. णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू । आजीवगं चैव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥ १ ॥ एयाई मयाई विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते गत्वा महेसी, उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति ॥ २ ॥ भिक्खू मुयचे तह (प्र० सूय) दिट्टधम्मे, गामं च नगरं च अणुपविस्सा से एसणं जाणमणेसणं च अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिदे ॥ ३ ॥ अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, बहुजणे वा तह एगचारी एगंतमोणेण वियागरेजा, एगस्स जंतो गतिरागती य ॥ ४ ॥ सयं समेच्चा अदुवाऽचि सोचा, भासेज धम्मं हिययं पयाणं । जे गहिया सणियाणष्पजोगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ ५ ॥ केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुद्दपि गच्छेज असदहाणे। आउस्स कालाइयारं बघाए, उद्धाणुमाणे य परेसु अट्टे ॥ ६ ॥ कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणइज्ज उ सबओ आय (प्र० सुबओ, हा, पाय० ) भावं । रूवेहि लुप्पंति भयावहेहिं विज्जं गहाया तसथावरेहिं ॥ ७॥ न पूयणं चैव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा। सजे अणट्टे परिवज्जयंते, अणाउले या अक्साइ भिक्खू ॥ ८॥ आहत्तहीयं समुपेहमाणे, सवेहिं पाणेहिं विहाय दंडं णो जीवियं णो मरणाहिकंखी, परिवज्जा वलया विमुके ॥ ९ ॥ त्तिषेमि, याथातथ्याध्ययनं १३ ॥ गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा ओवायकारी विषयं सुसिक्खे, जे छेए विप्पमायं न कुजा ॥ ५८० ॥ जहा दियापोतमपत्तजातं, सावासमा पविडं मन्त्रमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजातं ढंकाइ अवत्तगमं हरेज्जा ॥ १ ॥ एवं तु सेहंपि अपुट्टधम्मं, निस्सारियं बुसिमं मन्त्रमाणा । दियस्स छायं व अपत्तजायं, हरिसु णं पावधम्मा अणेगे ॥ २ ॥ ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिए गंतकरिति णच्चा । ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिकसे बहिया आसुपन्नो ॥ ३ ॥ जे ठाणओ य सयणासणे य, परकमे यात्रि सुसाहुजुत्ते। समितीस गुत्तीस य आयपन्ने, वियागरिते य पुढो वएज्जा ॥ ४ ॥ सदाणि सोब्चा अदु भेरवाणि, अणासत्रे तेसु परिवज्जा । निदं च भिक्खू न पमाय कुज्जा, कहंकहं वा वितिमिच्छति ॥ ५ ॥ डहरेण बुडेणऽणुसासिए उ. रातिणिएणावि समग्रएणं सम्मं तयं ( समंतगं पा० ) थिरता गाभिगच्छेणित वावि अपारए से ॥ ६ ॥ विउद्वितेणं समयाणुसिद्धे, डहरेण बुड्ढेण उ चोइए य (प्र० सु) अच्चु (प्र० अच्भु) ट्टियाए घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिडे ॥ ७ ॥ ण तेसु कुज्झे ण य पवज्जा, ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा तहा करिस्संति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमाय कुजा ॥८॥ वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तेणेव (तणावि) मज्झं इणमेव सेयं, जं मे बुहा समणुसासयति ॥९॥ अहा तेण मूढेण अमूढगरस, कायव पूया सविसेसजुत्ता । एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्मं ॥ ५९० ॥ णेता जहा अंधकारंसि राओ, मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे से सुरिअस्स अन्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ॥ १ ॥ एवं तु सेहेवि अपुट्टधम्मे, धम्मं न जाणाइ अनुज्झमाणे । से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदए पासति चक्खुणेव ॥ २ ॥ उद्धं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा सयाजए तेसु परिष्वजा, मणप्पओसं अविकंपमाण ॥३॥ कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं । तं सोयकारी (य) पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं ॥४॥ अस्सि सुठिचा तिविहेण तायी, एएस या संति निरोहमाहु। ते एवमक्खति तिलोगदंसी, ण भुजभयंति पमायसंगं ॥ ५ ॥ निसम्म से भिक्खु समीहिय, पडिभाणवं होइ विसारए य आयाणअट्टी बोदाणमोणं, उवेच्च सु(प्र०मु) देण उवेति मोक्खं (सुट्टेण न उबेइ मारं पा० ) ॥ ६ ॥ संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति। ते पारगा दोहवि मोयणाए, संसोधितं पण्डमुदाहरति ॥ ७॥ णो छायए णोऽविय लसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा, ण याऽऽसियावाय वियागरेज्जा ॥ ८ ॥ भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण विहे मंतपदेण गोयं । ण किंचि ४९. सूत्रांगं अय- १४
मुनि दीपरत्नसागर

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