Book Title: Aagam 40 Aavashyak Malaygiri Vrutti Mool Sootra 1 Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१४४-५४५], विभा गाथा -, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
देवकृत्यं
प्रत
सत्राक
आवश्यक धरोऽन्यो वा तदभावे देशनां करोतीत्येष द्वारगाधासमासार्थः । विसराय प्रतिद्धार बश्यामा, तत्र नन्विदं. समवसरणंरगाथा श्रीमलय- यत्र भगवान् धर्ममाचष्टे तत्र निधमतो भवत्युत नेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमद्धारं व्याचिख्यासुरिदमाहसमवसराजत
जस्थ अपुढ्बोसरणं जत्थ य देवो महड्डिओ एड। वाउदयपुष्फबद्दलपागारतिअंच अभिओगा ॥ ५४४॥
| यत्र क्षेत्रे ग्रामे नगरे वा अपूर्वम्-अभूतपूर्व समवसरणं भवति, यत्र वा भूतपूर्वसमवसरणे क्षेत्रे महर्बिको देव पति॥३०॥ आगच्छति, तत्र किमित्याह-वातं रेवाद्यपनोदाय उदक (उदक) वाईल भाविरेणुसन्तापोपशान्तये, पुष्पवृष्टिनिमित्त
वाईलं पुष्पवाईलं तत् क्षितिविभूषणाय, वाईटशब्द उदकपुष्पयोः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तथा प्राकारत्रिकं च, सर्वमेतत् । अभियोगमहन्तीत्याभियोग्या देवाः, कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, अन्यत्र त्वनियमः ॥ एवं तावत् सामान्येन समवसरणकर|णविधिरुतः, सम्पति विशेषेण प्रतिपादयति
मणि-कणग-रयणचित्तं भूमीभार्ग समंतओ सुरहिं । आजोअणंतरेणं करिति देवा विचितं तु॥५४५॥
इह यत्र समवसरणं भवति तत्र योजनपरिमाण क्षेत्रमाभियोग्या देवाः सम्वतंकवातं विकुर्वित्वा तेन विशुद्धरजः | कुर्वन्ति, ततः सुरभिगन्धोदकवृष्ट्या निहतरजः, तत आयोजनान्तरेण-योजनपरिमाणं भूमिभाग मणयः-चन्द्रकान्ता
दयः कनक-देवकाञ्चनं रतानि-इन्द्रनीलादीनि अथवा स्थलसमुद्भवा मणयो जलसमुद्भवानि रत्नानि तैश्चित्रं समन्ततः- ॥३०॥ | सर्वासु दिक्षु सुरभि-सुगन्धिगन्धयुक्तं, मणीनां सुरभिगन्धोदकस्य पुष्पाणां चातिमनोहारिगन्धयुक्कत्वात् , विचित्रम्अपूर्व देवा आभियोग्याः कुर्वन्ति ।
दीप अनुक्रम
15-23
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