Book Title: Aagam 17 CHANDRA PRAGYAPTI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
"चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:)
(१७)
प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१००
सू१००
गाथा:
सूर्थमज्ञ- संठाणसंठिते, ता कालोयणे णं समुद्दे केवतियं चक्कवालविखंभेणं केवतियं परिक्खेवणं आहितेति ११९माभूते निवृत्तिःबदेज्जा ?, ता कालोयणे णं समुद्दे अजोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पन्नत्ते एकाणउति जोयणसयसह-| (मळ०) स्साई सत्तरं च सहस्साई छच्च पंचुत्तरे जोषणसते किंचिबिसेसाधिए परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा,
तादपरिमाण enकालोयणे णं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा, ता कालोयणे समुद्दे बातालीसं चंदा पभासेंसु
वा ३ थायालीसं सूरिया तवेंसु वा ३ एकारस बावत्तरा णक्खत्तसता जोयं जोइंसु वा ३, तिन्नि सहस्सा छच छन्नज्या महगहसया चारं चरिंसु वा ३ अट्ठावीसं च सहस्साई पारस सयसहस्साई नच य सपाई पपणासा तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोहंति वा सोभिस्संति वा "एकाणउई सतराई।
सहस्साई परिरतो तस्स । अहियाई उच पंचुत्तराई कालोदधिवरस्स ॥१॥ वातालीसं चंदा बातालीसं| &च दिणकरा दित्ता । कालोदधिमि एते चरंति संबद्धलेसागा ॥२॥णक्खत्तसहस्सं एगमेव वत्तरं चा |सतमण्णं । उच्च सया छपणउया महग्गहा तिपिण य सहस्सा ॥३॥ अट्ठावीस कालोदहिमि बारस य सह-| |स्साई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४॥" ता कालोयं णं समुई पुक्खरवरे णामं दीचे बढे वलयाकारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टति, ता पुक्खरचरे णं दीवे किं समचक-|
म ॥२६९॥ वालसंठिए विसमचकवालसंठिए !, ता समचक्कवालसंठिए नो सिमचकवालसंठिए, ता पुक्खरवरे नणं दीवे केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं ?, केवइअं परिखेवेणं !, ता सोलस जोयणसयसहस्साई
दीप अनुक्रम [१३३-१९६]
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