Book Title: Aagam 06 GYATA DHARM KATHA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(०६)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम [४]
“ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:)
अध्ययनं [-]
मूलं [४]
श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
माणे जियमाए जियलोहे जियई दिए जियनिद्दे जिगपरिसहे जीवियासमरणभयविव्यमुके तबप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरणनिग्गह णिच्छय अज्जव मद्द वलाघव खं तिगुत्तिमुत्ति १० विज्जामंत भवयनय नियमसचसोयणाणदंसण २० चारित्त० ओराले घोरे घोरबए घोरत वस्सी घोरवं भवेरवासी उच्छूढशरीरे संखितविउलतेयल्ले से चोदसी चडणाणोवगते पंचहिं अणगारसहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवा िचरमाणे गामाणुगामं दूतिजमाणे सुमुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुष्ण भद्दे चेतिए तेणामेव उवागच्छ उवागच्छत्ता अहापडिवं उग्गहं उग्गहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । (सूत्रं ४) 'थेरे 'ति श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः, 'जातिसंपन्न' इति उत्तममातृकपक्षयुक्त इति प्रतिपत्तव्यमन्यथा मातृक पक्ष संपन्न लं पुरुषमात्रस्यापि स्यादिति नास्योत्कर्षः कचिदुक्तो भवेद्, उत्कर्षाभिधानार्थं चास्य विशेषणकलापोपादानं चिकीर्षितमिति, एवं कुलसंपन्नोऽपि, नवरं कुलं - पैतृकः पक्षः तथा बलं संहननविशेषसमुत्थः प्राणः रूपम् - अनुत्तरसुररूपादनंवगुणं शरीरसौन्दर्य विन यादीनि प्रतीतानि नवरं लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवमत्यागः एभिः संपन्नो यः स तथा, 'ओयंसि 'त्ति ओजोमानसोऽवष्टम्भस्तद्वानोजखी तथा तेजस्वी तेजः- शरीरप्रभा तद्वांस्तेजस्वी वचो - वचनं सौभाग्यायुपेतं यस्यास्ति स वचस्त्री अथवा वर्चः - तेजः प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी यशस्वी ख्यातिमान्, इह विशेषणचतुष्टयेऽपि अनुखारः प्राकृतखात्, जितक्रोध इत्यादि तु विशेषणसप्तकं प्रतीतं, नवरं क्रोधादिजय उदयप्राप्तक्रोधादि विफलीकरणतोऽवसेयः, तथा जीवितस्य - प्राणधारणस्याशा वाच्छा | मरणाच्च यद्भयं ताभ्यां विप्रमुक्तः जीविताशामरण भयविप्रमुक्तस्तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः तथा तपसा प्रधान-उत्तमः शेषमुनिजना
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सुधर्मस्वामिनः वर्णनं
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